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श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३
आज राष्ट्र में घृणा, जातिगत, अहंकार आदि विकार समा गए हैं। इनसे देश का जितना विनाश होगा उतना तो कोई अणु बम भी नहीं कर पायेगा, क्योंकि आत्मगत दोषों द्वारा जीव ऐसे गड्ढे मे गिरता है कि वहाँ से विकास का मार्ग ही सदैव के लिए रुक जाता है। आज राजा-प्रजा का, धनी-निर्धन का, मिल मालिक-मजदूर का शोषण कर रहा है। आज समाज की सारी व्यवस्थाएँ अर्थमूलक हो गई हैं और इसी अर्थ के लिए संघर्ष हो रहा है। ऐसे में जैन दर्शन मनुष्य को परस्पर सहयोग, सहानुभूति, ऐक्य, उदारता, प्रेम, सन्तोष, स्पष्टवादिता, निर्भीकता, संयम बरतने की बात कर सामाजिक समरसता प्रदान करता है। इस संदर्भ में पं० सुमेरुचन्द्र दिवाकर की पंक्ति उधृत करना प्रासंगिक है -
___ "इसलिए परिग्रह परिमाण व्रत के स्वरूप में कहा गया है कि अपनी आवश्यकता तथा मनोवृत्ति के अनुसार धन-धान्यादि की मर्यादा को बाँध लेने से चित्त लालच के रोग से मुक्त हो जाता है। मार्यादा के बाहर की सम्पत्ति के बारे में ततोऽधिकेषु नि:स्पृहता' का भाव रखना आवश्यक कहा है।"
__ यह परग्रिह ही समस्त अनर्थों का मूल है। परिग्रह की लालसा ने मानव को , स्वार्थी और पथ भ्रष्ट बना दिया है। आज अगर जैन आचार सम्मत अपरिग्रह व्रत का पालन किया जाये तो अनेक समस्याएँ अपने आप सुलझ जायेंगी, इसमें जरा भी सन्देह नहीं।
यदि अनेकान्तवाद के अनुसार दूसरे की बातों एवं कार्यों के महत्त्व को हम समझें, अस्तेय के अनुसार दूसरे की सम्पत्ति का लोभ न करें, अपरिग्रह के अनुसार आवश्यकता से अधिक संयम न करें और ब्रह्मचर्य के अनुसार अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण करें तो निश्चित ही समाज से असमानता, शोषण, लूटमार, जनसंख्या आदि पर नियंत्रण किया जा सकता है, साथ ही मूल्य-प्रधान समाज के निर्माण की भूमिका प्रशस्त की जा सकेगी। जैन-दर्शन अनासक्ति का मूल्यवान संदेश देता है। इस सन्देश से प्रेरित होकर मनुष्य अपनी लालसा पर अंकुश लगा सकता है, भौतिक सुखों के प्रति विकर्षित होकर मनुष्यं आत्म-संतोषी होने का प्रयास कर सकता है।
कर्म सिद्धान्त के अनुसार शुभ कर्मों के फल सदा शुभ ही होंगे और अशुभ कर्मों के फल कदापि शुभ नहीं होंगे। स्वभावत: मनुष्य शुभ फलाकांक्ष ही होता है। करूणा, क्षमाशीलता औदार्य आदि ऐसे गुण हैं जो अहिंसक समाज की संरचना के लिए भी हमें । सहजत: प्रेरित करते हैं। मनुष्य एवं प्राणियों के प्रति बन्धुत्व और स्नेह का नाता, एकदूसरे के प्रति हितैषिता का भाव मानवीय प्रवृत्ति के अंग हैं।
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