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७२ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ करते। उलटे वे तो उन्हें फलाहार-उपवास के दिनों में सेवन करने योग्य पवित्र वस्तुएँ मानते हैं।''(७-२-१८९१)
"भारतीय अन्नाहारियों के बारे में एक बात अक्सर कही जाती है सो यह है कि वे शारीरिक दृष्टि से बहुत दुर्बल हैं और इसका अर्थ है कि, अन्नाहार शारीरिक शक्ति के साथ मेल नहीं खाता।.... भारत में अन्नाहारी लोग भारतीय मांसाहारियों से
और यों कहिये कि अंग्रेजों से भी अधिक हष्ट-पुष्ट नहीं तो उनके बराबर जरूर हैं और इसके अलावा जहां कहीं दुर्बलता देखने में आती है वहाँ उसका कारण निरामिष आहार नहीं, बल्कि कुछ और ही है।''२ (२१-२-१८९१)
___ "कोई चाहे जो आहार ग्रहण करे, शारीरिक एवं मानसिक शक्ति का एक साथ बराबर विकास होना तो असंभव मालूम होता है। हाँ इसमें विरले अपवाद भले ही हों। क्षतिपूर्ति नियम की माँग होगी कि मानसिक शक्ति में जितनी वृद्धि होती है, शारीरिक शक्ति उतनी घटती है।"३ (२८-२-१८९१)
__ “आमतौर पर माना जाता है कि भारत में सब लोग अन्नाहारी हैं परन्तु यह सही नहीं है। यहाँ तक कि सब हिन्दू भी अन्नाहारी नहीं हैं। परन्तु यह कहना बिल्कुल सही होगा कि भारतवासियों की भारी बहुसंख्या अन्नाहारी है। उनमें से कुछ तो अपने धर्म के कारण अन्नाहारी हैं, अन्य लोग अन्नाहार पर निर्वाह करने को बाध्य हैं, क्योंकि वे इतने गरीब हैं कि मांस खरीद ही नहीं सकते।... भारतीय मांसाहारी मांस को जीवन के लिये आवश्यक वस्तु नहीं, केवल एक विशेष भोजन की वस्तु मानते हैं। यदि उन्हें उनकी रोटी... मिल जाये तो मांस के बिना उनका काम मजे में चल जाता है।''४
"मांस खाने की आदत वास्तव में समाज की प्रगति में बाधक हुई है। इसके अलावा, जिन दो महान समाजों को एकता के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करना चाहिये, उनके बीच उसने अप्रत्यक्ष रूप से फूट पैदा कर दी है।” (१-६-१८९१)
“अगर कुछ साधन-सम्पन्न और अन्नाहारी साहित्य से सुपरिचित लोग संसार के भिन्न-भिन्न भागों की यात्रा करें, विभिन्न देशों के साधनों की जांच पड़ताल करें, अन्नाहार के दृष्टिकोण से उनकी संभावनाओं का लेखा-जोखा लें और जिन देशों को अन्नाहार प्रचार के लिये तथा आर्थिक दृष्टि से बसने के लिये उपयुक्त समझें, उसमें निवास करने के लिये अन्नाहारियों को आमंत्रित करें, तो अनाहार के प्रचार का बहुत ज्यादा कार्य किया जा सकता है। गरीब अत्राहारियों के लिये उन्नति के नये स्थान पाये जा सकते हैं और संसार के विभिन्न भागों में अन्नाहरियों के सच्चे केन्द्र स्थापित किये जा सकते हैं।"५ (२१-१२-१८९४)
गाँधी जी द्वारा लिखित उपर्युक्त लेखों का यदि विश्लेषण करें तो इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारत मूलत: अहिंसावादी देश है और इसकी रचना मूलत: ‘सर्वजन
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