Book Title: Sramana 2003 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 76
________________ ७० : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ साहित्य समाज का दर्पण होता है, अत: तत्कालीन साहित्य में स्पष्ट रूप से दो प्रकार के विचारों का उल्लेख मिलता है। एक विचार वह था जो ‘जन्मन:' जाति को आधार बनाकर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता था और दूसरा विचार वह था जो 'कर्मणः' जाति व्यवस्था के पक्ष में था। वस्तुत: दूसरा पक्ष वंशानुगत वर्चस्व स्थापित करने वालों का विरोध था और विरोध का माध्यम बना 'जन्मनः' जाति व्यवस्था। विक्रम की ग्यारहवीं शती के जैन-तार्किक आचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रमेयकमलमार्तण्ड में ब्राह्मण-जाति का निरास किया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय 'जन्मनः' जातिवाद चरमोत्कर्ष पर था। विभिन्न जातियों या विचारधाराओं का होना बुरा नहीं है। बुरा है उसी विचारधारा मात्र को सत्य मानकर शेष एक बहुत बड़े समूह को नकार देना, उसकी उपेक्षा करना। 'जन्मनः' जाति व्यवस्था को स्वीकार करना एक पक्ष हो सकता है, किन्तु अन्य अनन्त पक्षों को अस्वीकार करना ही संघर्ष का मूल कारण है। इस संघर्ष को जैनाचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित स्याद्वाद पद्धति से सहज ही टाला जा सकता है। हमारे सामने एक लम्बा अतीत है, जिसके सम्बन्ध में हमने यत्किञ्चित् सुना है और पढ़ा भी है। दूसरी ओर हमारे सामने एक लम्बा भविष्य है, जिसके सम्बन्ध में हम अच्छी या बुरी कल्पना मात्र कर सकते हैं, किन्तु इन दोनों में से एक हमारे हाथ से निकल चुका है और दूसरा हमारे हाथ में आ भी सकता है और नहीं भी। इन दोनों के मध्य एक तीसरा हमारा वर्तमान है जो हमें सहज प्राप्त है, अत: हमें अपने वर्तमान को उदात्त विचारों और सदाचरण से सजाना एवं सँवारना चाहिये। क्योंकि यही सत्य है और यही तथ्य है। हम न भूत में जियें और न भविष्य में, जियें तो वर्तमान में जियें। हमारा वर्तमान ही अतीत बनकर हमें सुख की अनुभूति करायेगा और भविष्य हमारे सत्कर्मों से सुधरेगा। अत: वर्तमान को सुधारने में ही हमें अपनी सम्पूर्ण शक्ति को लगाना चाहिये। व्यक्ति-व्यक्ति से मिलकर समाज का निर्माण होता है। विविध समाज मिलकर एक देश बनता है और अनेक देशों से विश्व का निर्माण होता है। अत: व्यक्ति सुधरेगा तो समाज सुधरेगा। समाज सुधरेगा तो देश सुधरेगा और देश सुधरेंगे तो विश्व सुधरेगा तथा हम व्यक्ति-निर्माण से विश्व-निर्माण की कल्पना कर भारतीय संस्कृति के सनातन सिद्धान्त 'वसुधैव कुटुम्बकम्, की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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