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जाति व्यवस्था और हमारा दायित्व : ६९
जो ध्यानी, निर्मल, स्थिरचित्त, कृतकृत्य और आश्रव रहित है, जिसने उत्तामार्थ (निर्वाण ) को पा लिया है वही ब्राह्मण है। जिसने पापों को धोकर बहा दिया है वह ब्राह्मण है। आगे कहा गया है कि ब्राह्मण पर प्रहार नहीं करना चाहिये और ब्राह्मण को भी क्रोध नहीं करना चाहिये तथा उसे हिंसा आदि से विरत रहना चाहिये (गाथा ३, ४, ६, ७, ८)। कोई भी व्यक्ति जटा, गोत्र अथवा जन्म से ब्राह्मण नहीं होता है, अपितु जिसमें सत्य और धर्म है वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है। माता की योनि से उत्पन्न होने के कारण कोई ब्राह्मण नहीं होता, अपितु जो अपरिग्रही और त्यागी है वही ब्राह्मण है। आगे की गाथाओं में बतलाया गया है कि जो हिंसा, झूठ, चोरी, आदि से रहित है, संयमी है, तृष्णा विहीन है, ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण है। मेरी दृष्टि में यहाँ ब्राह्मण का अर्थ श्रेष्ठ व्यक्ति से है। चूंकि उस समय सदाचारी ब्राह्मण ही श्रेष्ठ थे, अतः उन-उन सद्गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को ब्राह्मण कहा गया है। क्योंकि जन सामान्य इसी शब्द से परिचित था ।
जैन शास्त्रों में भी स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है कि मनुष्य अपने कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होता है। जैन पुराणों के अनुसार प्रारम्भ में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - ये तीन ही वर्ण थे, किन्तु बाद में भगवान् ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने अहिंसा व्रत के प्रति निष्ठा रखने वाले व्यक्तियों की परीक्षा करके ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। अर्थात् जो अहिंसा व्रत का पालन करते थे वे ब्राह्मण कहलाये ।
जैन पुराणों के उल्लेखों से यह भी ज्ञात होता है कि अहिंसा - व्रत का पालन करने के कारण भरत चक्रवर्ती द्वारा सम्मानित उन व्रती महापुरुषों की परम्परा के लोगों में क्रमश: अहङ्कार की भावना प्रबल हो गई और अपने व्रतों अथवा आचरण से च्युत होने लगे और बाद में शनै: शनै: जन्म को जाति का आधार मान लिया गया।
हिन्दू शास्त्रों में जाति को जो अनादि कहा गया है, वह यदि पूर्वोक्त अर्थों अर्थात् एक कर्म, जैसे विद्या का अध्ययन-अध्यापन करने वाले सभी एक जाति के हैं अर्थात् ब्राह्मण हैं। एक समान विचारधारा को मानने वाले सभी एक जाति जैसे समाजवादी हैं और एक आकार-प्रकार के लोग एक जाति अर्थात् मनुष्य जाति के हैं इसमें कहीं कोई आपत्ति नहीं है और होनी भी नहीं चाहिये। हाँ आपत्ति वहाँ अवश्य होती है जहाँ आचार-1 र-विचार से शून्य 'होकर भी मनुष्य अपने आपको 'जन्मनः' उच्च जाति या वर्ग का मानकर अपने को समाज में प्रतिष्ठित करना चाहता है और उन सभी विशेषाधिकारों की अपेक्षा करता है जो उसे कभी संयम या सदाचार के कारण प्राप्त हुये थे। ऐसे 'जन्मनः ' उच्चजातीय या उच्चवर्गीय, किन्तु 'कर्मणः' पतित लोगों की कुत्सित मनोवृत्ति के कारण जनमानस उद्वेलित हो गया और तत्कालीन समाज के चिन्तकों किंवा प्रबुद्धजनों के नेतृत्व में क्रान्ति हुई और 'जन्मनः' जातिवाद को मानने वालों का डटकर विरोध हुआ, जो आज भी कमोवेश जारी है।
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