________________
७४ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३
"जब सर हेनरी टामसन कहते हैं कि मांसाहार को जीवन-पोषण के लिये समझना एक गंवारू भूल है और यह चोटी के शरीरशास्त्रवेत्ता घोषित करते हैं कि मनुष्य का प्राकृतिक आहार फल है और जब हमारे सामने बुद्ध, पाइथागोरस, प्लेटो, रे, डैनियल, वेजले, होवार्ड, शेली, सर आइज़क पिटमैन, एडीसन, सर डब्ल्यू०बी० रिचार्डसन आदि अनेकानेक महान व्यक्तियों के अनहारी होने के उदाहरण मौजूद हैं, तब स्थिति उलटी क्यों होनी चाहिये? ईसाई अन्नाहारियों का दावा है कि ईसा भी अन्नाहारी थे और इस विचार का खण्डन करने वाली कोई भी बात दिखलाई नहीं पड़ती। ..... दक्षिण अफ्रीका की सबसे सफल मिशनरी (ट्रेपिस्ट्स) अन्नाहारी हैं। प्रत्येक दृष्टि से देखने पर अन्नाहार को मांसाहार की अपेक्षा बहुत श्रेष्ठ साबित किया जा चुका है। अध्यात्मवादियों का मत है और शायद आम प्रोटेस्टेंट धर्म शिक्षकों को छोड़कर शेष सारे धर्मों के आचार्यों के व्यवहार से मालूम होता है कि, मनुष्य की आध्यात्मिक शक्ति को जितनी हानि अविवेकपूर्ण मांसाहार से पहँचती है उतनी किसी दूसरी चीज से नहीं पहुँचती। ..... आधुनिक युग की ईश्वर विषयक संशयशीलता, भौतिकवाद और धार्मिक उदासीनता का कारण बहुत ज्यादा मांसाहार तथा मद्यपान है। जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य की आध्यात्मिक शक्ति अंशत: या पूर्णत: नष्ट हो गयी है।''
उपर्युक्त पत्र से यह स्पष्ट है कि विश्व के समस्त धर्मों में अहिंसा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। सभी धर्मों में शाकाहार (अन्नाहार) को महत्व प्रदान करते हुये मांसाहार के अनेक दोष बताये गये हैं। सभी धर्म मांसाहार को आयु क्षीण करने तथा पतन के मार्ग की ओर ले जाने वाला बताते हैं। हिन्दू धर्म में सभी जीवों को ईश्वर का अंश मानते हुए अहिंसा, दया, परोपकार एवं क्षमा आदि को सर्वोपरि माना है। इस्लाम में भी कहा गया है कि “दूसरे के बहाये गये खून की प्रत्येक बूंद का हिसाब अपने खून से चुकाना पड़ेगा।” ईसाई धर्म कहता है "यदि तुम शाकाहारी भोजन को अपना आहार बनाओगे तो तुम्हे जीवन और शक्ति मिलेगी लेकिन यदि तुम मांसाहारी भोजन करोगे तो वह मृत आहार तुम्हे भी मार देगा।" बौद्ध और जैन धर्म तो पूर्णत: अहिंसा पर ही आधारित हैं। महावीर स्वामी ने सर्वप्रथम 'जिओ और जीने दो' तथा 'अहिंसा परमोधर्म:' का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। सिक्ख धर्म में भी हिंसा की मनाही
और जीव दया पर बल दिया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कोई भी धर्म ऐसा नहीं है जो जीव हत्या या हिंसा का समर्थक हो फिर यह मांसाहार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति का क्या कारण है? आज के इस दौर में मांसाहार लेना फैशन और आधुनिकता का प्रतीक माना जाने लगा है। आधुनिक युवा वर्ग इस भ्रम में है कि यदि उसे कोई विशिष्ट स्थान प्राप्त करना है तो उसे शराब व मांस का सेवन करना ही पड़ेगा। परन्तु यह पूर्णतः भ्रम एवं सत्य से दूर है। मांसाहार नैतिक पतन की ओर ही ले जाता है।
गांधीजी ने मांसाहार के दुर्गुणों पर प्रकाश डालते हुये अपने पत्र में लिखा है: "अन्नाहारी नीतिवादी इस बात पर अफसोस करते हैं कि स्वार्थी मनुष्य अपनी अति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org