________________
वर्तमान् सामाजिक सन्दर्भ में अध्यात्मवाद की चुनौतियाँ एवं जैन- दृष्टि से उनका समाधान : ६५
जैन धर्म की अनेकान्तदृष्टि सामाजिक बुराइयों का परिहार करके अपने कर्तव्यों में सामंजस्य स्थापित करने की हमें अद्भूत शक्ति प्रदान करती है। जैन धर्म दर्शन की अनैकान्तिक विचारणा के कारण ही हमारे देश ने वैयक्तिक व्यवहार में ही नहीं, अपितु राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय नीति के निर्धारण में भी अहिंसा आदि तत्त्व के मौलिक रूप को बहुत हद तक स्वीकार किया गया है। जैन धर्म-दर्शन की इस समन्वयवादी दृष्टि को प्रस्तुत करते हुये समन्त भद्राचार्य ने अपने 'युक्त्यानुशासन' नामक ग्रन्थ में महावीर के जैन शासन को सब आपदाओं का निवारक, शाश्वत सर्वोदय तीर्थ कहा है
-
13
“सर्वापदामन्तै निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तथैव । '
जैन दर्शन में स्याद्वाद की चर्चा भी पाते हैं जो समस्याओं का समाधान करने में जैन- परम्परा से लेकर आज तक मानव समाज की मदद करते आया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, तप, अनेकान्तवाद, स्यादवाद, कर्म सिद्धान्त की व्याख्या, सम्यक्-दर्शन, सम्यक् ज्ञान, 'सम्यक् चारित्र रूपी त्रिरत्न मानव समाज के लिए कल्याणकारी है। और वर्तमान सामाजिक सन्दर्भ में अध्यात्मवाद की चुनौतियों का समाधान करने में अचूक औषधि सिद्ध होता है। आध्यात्मिकता मानव जीवन में ही रचा-बसा है, आवश्यकता है केवल उसे पहचानने तथा जीवन में अक्षरशः उतारने की। आज अध्यात्मवाद की चर्चा एवं महत्ता की बात सर्वत्र चल रही है क्योंकि बिना आध्यात्मवादी दृष्टि अपनाये, आज मानवता की रक्षा संभव प्रतीत नहीं होती। जैन दर्शन की आध्यात्मिक दृष्टि से ही आज मानवता की रक्षा संभव है।
ऐसे तो सभी धर्मों में आध्यात्मवादी विचारों का विशेष स्थान है, परन्तु अन्तर्दृष्टि एवं आत्म समीक्षण का जितना अधिक विचार जैन धर्म एवं दर्शन में किया गया है उतनी मात्रा में कदाचित अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। यही कारण है कि जैन धर्म को आत्मधर्म कहते हैं। इसके सिद्धान्त उदार, सार्वभौमिक, सार्वदायिक और सर्वहितकारी है। हठ धर्म की आधारशीला न ईश्वर है, और न कोई व्यक्ति विशेष ही। इसकी आधारशिला वीतरागता अर्थात् अध्यात्म है। यही एक मात्र शान्ति मार्ग है ।
सन्दर्भ :
१. शास्त्री नेमिचन्द्र: 'तीर्थंकर महावीर और उनकी परम्परा', पृ० ५८८. २. श्री टी० एन० रामचन्द्र, भगवान महावीर, स्मृति ग्रन्थ, भाग - १, १९४८
४९.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org