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श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२ / अक्टूबर-दिसम्बर २००३
अवधारणाएँ -
आचार्य शङ्कर ने बौद्ध दर्शन के परमाणुवाद, प्रतीत्यसमुत्पाद, अनात्मवाद, क्षणभङ्गवाद, असंस्कृत धर्म, स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, भोग व मोक्ष, विज्ञान, विज्ञेय, वासना, सहोपलम्भ नियम, आलयविज्ञान, शून्य आदि प्रमुख अवधारणाओं को समीक्षार्थ लिया है। क्षणभङ्गवाद, बौद्ध दर्शन की ऐसी अवधारणा है जो (बौद्ध दर्शन के ही एक सम्प्रदाय शून्यवाद सहित ) अन्य सभी बौद्ध-विरोधी दार्शनिकों के आलोचना का केन्द्र रही है। बौद्ध दर्शन के दो प्रधान सम्प्रदायों (सर्वास्तिवाद और विज्ञानवाद) का समस्त दार्शनिक चिन्तन इसी अवधारणा पर केन्द्रित है। आचार्य शङ्कर ने भाष्य में 'सिकता - कूप' शब्द के माध्यम से क्षणभङ्गवाद की इस अवधारणा पर आक्षेप किया है। १५ आचार्य की दृष्टि में यह सिद्धान्त इतना निरर्थक है कि इसके माध्यम से जीवन की समस्याओं (तत्त्वमीमांसीय, प्रमाणमीमांसीय और मोक्षमीमांसीय) के हल ढूँढने का प्रयत्न, बालू के कुँए में पानी ढूँढने जैसा ही है।
आचार्य शङ्कर की दृष्टि में ब्रह्मसूत्र में साक्षात् शून्यवाद का खण्डन नहीं है इसलिए विज्ञानवाद के सन्दर्भ में प्रयुक्त एक सूत्र (२/२/३१) के माध्यम से उन्होंने शून्यवाद पर टिप्पणी की है। शून्यवाद पर शङ्कर की टिप्पणियाँ इतनी संक्षिप्त हैं कि इनके विषय में यह विवाद हो गया कि वस्तुतः इसे शून्यवाद का खण्डन माना भी जाए अथवा नहीं। इस विवाद को परे रखकर टिप्पणी के शब्दों पर यदि ध्यान केन्द्रित किया जाता है तो यह स्पष्ट है कि उन्होंने शून्यवाद को प्रमाणातीत, अनिर्वचनीय और अव्यवहारिक बताया है तथा साथ ही इसे खण्डन के योग्य भी माना है । १६
युक्तियाँ, दर्शन की प्राण हैं। इनके माध्यम से न केवल दर्शन के सिद्धान्तों का परिचय ही प्राप्त होता है अपितु उन सिद्धान्तों के पीछे छिपी, दार्शनिक की दृष्टि भी उद्घाटित होती है। आचार्य शङ्कर की बौद्ध दर्शन के प्रति क्या दृष्टि है, इसका सबसे प्रबल प्रमाण वे युक्तियाँ हैं जो उन्होंने बौद्ध दर्शन के खण्डन में दी हैं।
शारीरक भाष्य में युक्तियों के दो वर्ग हैं - (१) पूर्वपक्ष की समर्थक युक्तियाँ (२) पूर्वपक्ष की खण्डनात्मक युक्तियाँ। सम्प्रदायानुसार सिद्धान्त के समर्थन में दी गई युक्तियाँ, बौद्ध साहित्य का अनुकरण करती हैं। इन युक्तियों के माध्यम से शङ्कर ने यथासंभव बौद्ध विचारधारा के प्रति न्याय किया है किन्तु जहाँ तक युक्तियों की मौलिकता का प्रश्न है, उसमें क्रम व व्यवस्था आचार्य की अपनी है। तथापि खण्डनात्मक युक्तियाँ बौद्ध सम्प्रदायों के प्रति आचार्य की दृष्टि और शैली की विविधता का प्रमाण हैं।
शङ्करदर्शन में अनुभव एवं श्रुति के अनन्तर तर्क को तृतीय सोपान पर स्वीकार किया गया है। तर्क यहाँ स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में न मानकर श्रुतियों के अनुग्राहक
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