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४४ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२ / अक्टूबर-दिसम्बर २००३
के अर्थ को अनुचित कहने का अर्थ उनकी विद्वत्ता के प्रति अन्याय ही कहा जाएगा। व्युत्पत्तिजन्य या रूढ़ अर्थों का उल्लेख भी वहां किया जाता है। इसी प्रकार सचित्त शब्द भी है। यह आम का समानार्थी भी माना जा सकता है। यदि व्युत्पत्तिजन्य या रूढ़ अर्थ को शास्त्रानुसार व्यक्त करने में एक ओर अर्थापत्ति (सम्यकत्वं च, न देवाः आदि) का उपयोग किया जा सकता है, तो अन्य प्रकरणों में उसकी उपयोगिता क्यों नहीं मानी जाती?३६ वस्तुतः 'आम' शब्द सामान्य वनस्पति के विशिष्ट प्राकृतिक रूप का द्योतक है, सप्रतिष्ठित प्रत्येक या साधारण वनस्पति मात्र का नहीं। इस प्रकार अर्थापत्ति के समान ही निषेध के आधार पर विधि भी अर्थापतित हो जाती है, अनुमानित हो जाती है। जैनधर्म को वैसे ही निषेध प्रधान या नकारात्मक माना जाता है, तो क्या उसका सकारात्मक पक्ष ही कोई नहीं होगा ? नकारात्मक अहिंसा, करुणा, प्रेम और भाईचारे का प्रतीक है । फलतः निषेध के आधार पर विधि का अनुमान सहज हीं लग जाता है। यह सामान्य प्रवृत्ति है। इसका एक उदाहरण मूलाचार ४७३ (पृष्ठ ३६६) की टीका में दिये गये 'परिणतानि ग्राह्यानीति' के रूप में दिया गया है।
शास्त्रों में आम और सचित कंदमूलों की स्थिति
विभिन्न ग्रंथों में आहार और उसके घटकों या उनके त्याग के संबंध में दो प्रकरणों में विवरण पाया जाता है : १. भोगोपयोग - परिमाण व्रत और सचित्त त्याग प्रतिमा जिसकी कोटि व्रत से उच्चतर होती है। इस प्रतिमाधारी के आहार में सचित्त वनस्पतियों का प्रायः आजन्म और संपूर्ण त्याग किया जाता है। इसके विपर्यास में, भोगोपभोग परिमाण व्रत में भोजन-घटकों का परिमाण, कुछ का त्याग तथा त्याग काल परिमाण भी समाहित होता है। सामान्य जन इन दोनों ही कोटियों में नहीं आते। अतः इनसे संबंधित आहार नियम उन पर अनिवार्यतः लागू नहीं किये जा सकते। हां, यदि कोई इच्छुक है, तो वह नियमों के पालन का अभ्यास कर सकता है। इस संबंध में हम यहां कुछ शास्त्रों में विद्यमान विवरणों पर प्रकाश डालेंगे। इनके आधार पर शास्त्रीय विद्वान् इस चर्चा को निषेधात्मक रूप में प्रस्तुत करते हैं। हम निषेध से अर्थापतित विधि रूप में प्रस्तुत करेंगे!
अ. भोगोपभोग परिमाण व्रत
भोगोपभोग परिमाण व्रत से संबंधित रत्नकरंड श्रावकाचार के श्लोक ८५ में अल्प-फल बहु-विधात के रूप में आर्द्र अदरख व मूली (कुछ फूल) के अनाहरण का संकेत है। यदि इन्हें कंद-मूल का प्रतिनिधि माना जाय, तो केवल आर्द्र या चित् साधारण वनस्पति का निषेध प्राप्त होता है, अचित्त या शस्त्रपरिणत अनंतकाय का नहीं। वस्तुतः इस व्रत में संपूर्ण त्याग नहीं, अपितु एकाधिक वनस्पतियों के रूप में परिमित काल के लिये त्याग किया जाता है। यह तो सचित्त त्याग प्रतिमा है जहां
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