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वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : ४५
सचित्तों के त्याग की पूर्णता होती है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा ३५० में तो केवल तांबूल (पत्र-शाक का प्रतिनिधि) के परिमित त्याग की बात कही गई है। इसके विपर्यास में, गाथा ३७९ में भी सात के बदले पांच सचित्तों के खाने का निषेध है। गाथा ३५० में आदि शब्द भी नहीं है जिससे गाजर आदि कंद-मूलों का समावेश हो। (शायद ये उस युग में ज्ञात न हों?) ये गाथायें स्थावर-हिंसा की अधिकता के किंचित् नियमन की प्रतीक हैं। इसके साथ ही, व्रत भी उच्चतर श्रेणी का है। कितने लोग इस श्रेणी में आते हैं?
श्रावक के आठ मूल-गुणों में भी कंद-मूल समाहित नहीं है। अहिंसा व्रत के अतिचारों और भावनाओं में भी इनका नाम नहीं है। हां, वहां आलोकितपान भोजन अवश्य है जो सभी का कर्तव्य है।
सागारधर्मामृत ५.२० में भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचारों में सचित्ताहार का नाम है, अचित्ताहार का नहीं। साथ ही, न सेवन करने योग्य पदार्थों में अनिष्ट और अनुपसेन्य की चर्चा है जो अभक्ष्यता की कोटियों के अपवाद मार्ग हैं। वहां कलींदा, सूरणकंद एवं द्रोणपुष्प के परिमित काल न खाने का उल्लेख है। वस्तुत: अचित्ताहार को कहीं भी दोष नहीं बताया गया है। यह सर्वत्र अर्थापतित एवं विधिरूप मे अनुमत माना जाता है। इसमें स्वाभिप्राय-पोषण या अ-विचारणा का कोई प्रश्न नहीं है।
सचित्तत्याग प्रतिमा
रत्नकरंडश्रावकाचार का श्लोक १४१ पांचवीं सचित्त प्रतिमा के लिये है। यहां सात प्रकार की 'आम' अर्थात् अपक्व, हरित या सचित्त वनस्पतियों या उनके अवयवों के आहरण का निषेध है। इससे अर्थापतित अचित या अचित्तकृत रूप में ग्रहण करने की विधि प्राप्त होती है। जब पांचवीं प्रतिमा के लिये अचित्त आहरण अर्थापतित है, तो प्रतिमाविहीन श्रावक की तो बात ही क्या? इस श्लोक का 'आम' शब्द भी वनस्पति के सभी रूपों का विशेषण है। इसे विशिष्ट वनस्पति के रूप में विशेष्य नहीं माना जा सकता। मूल-फल-शाक-आदि में अचित्तता लाकर ही उन्हें भक्ष्य बनाया जा सकता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी गाथा ३७९ में सात के स्थान पर पांच सचित्तों के त्याग की बात कही गई है।
भावपाहुड़ गाथा १०० भी मुनि-चर्या से संबंधित है। इसमें भी सचित्त भक्तपान से संसार-भ्रमण की बात कही है। आगे की गाथा १०१ में सचित्त श्रेणी के कुछ पदार्थों का नाम है जिसकी टीकाकार ने व्याख्या की है। सचित्त न खाये, तो क्या खाये? फलत: यहां भी अचित्ताहार के विषय में, रलकरंडश्रावकाचार के समान ही, विधि आपतित होती है। यदि ऐसा न होता, तो श्रुतसागर के प्राय: समकालीन शुभचंद्र ने अचित्तीकरण की विधियां या श्वेतांबर आगमों के वृत्तिकारों ने शस्त्र-परिणमन के अनेक
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