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वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : ४३
काल, भाव - सापेक्ष होते हैं। उन्हें उसी रूप में देखना चाहिये। वैसे भी, आज के उपलब्ध आगम- कल्प ग्रंथ तो त्रिकाल - व्यापिनी जिनवाणी नहीं हैं, वे सदियों बाद उत्पन्न आचार्यों की वाणी हैं जिन्होंने अपने विचारों को प्रामाणिक मानने के लिये जिनवाणी का आधार लिया है। इसका अनंत अनन्तवां भाग ही उन्हें मिला है। इनके कथनों में विरोध भी देखा जाता है। इस अर्थ भिन्नता की ओर परम्परावादी ध्यान नहीं देते हैं। नेमचन्द्र शास्त्री ने अपने ग्रंथ और एन०एल० जैन ने एक लेख में अनेक आंतर और अन्तराविरोधों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। प्रस्तुत प्रकरण से संबंधित सारणी - १ से भी उक्त तथ्य समर्थित होता है:
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१. जहां भावप्राभृत के टीकाकार श्रुतसागर आदि विभिन्न कंदों तथा प्याज, लहसुन, अदरक, हल्दी आदि को कंद कहते हैं, मूली गाजर आदि को मूल कहते हैं, वहीं मूलाचार का मत इससे कुछ पृथक है।
२. धवला १.१.४१ में आर्द्रक, मूलक, स्नुग ( थूहर ) आदि को प्रत्येक कोटि का बताया गया है (इस प्रकार इन्हीं की आर्द्ररूप में भी भक्ष्यता सिद्ध होती है) जबकि मूलाचार में इन्हें अनंतकाय माना है। धवला का मत ही प्रज्ञापना में है।
३. अनेक कोटि के वनस्पतियों को दोनों ही कोटि में बताया गया है (शायद विभिन्न अवस्थाओं में) । फलतः उनकी भक्ष्यता की परिस्थतियां विचारणीय हो गई हैं। वस्तुतः प्रतिष्ठित/अप्रतिष्ठित / साधारण वनस्पति की परिभाषाओं के बावजूद भी व्यक्तिगत वनस्पतियों के विभिन्न अवयवों के और उनके भी विविध अंशों के स्वरूप निर्धारण में अस्पष्टता इतनी है, कि वह केवल विद्वानों के लिये ही बोधगम्य है। सामान्य जन न तो इस कोटि में आते हैं और न वे त्यागी हो सकते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आगमों की समयानुकूलन की प्रवृत्ति के कारण इनमें परिवर्तन/परिवर्धन होता रहा है। इसलिये मध्ययुग की अभक्ष्यता के आधार पुनर्विचारणीय हैं। उनके निंदित या अनिंदित के वक्तव्य आज के संवर्धित ज्ञान की दृष्टि से परीक्षणीय हैं।
अब प्रश्न केवल यह रह जाता है कि कंदमूलों की भक्ष्यता सचित्त रूप में हो, 'आम' रूप में हो या इसके भिन्न रूप में हो। इस पर विचार अपेक्षित है।
अर्थापतित या निषेध-परक अर्थ की द्वितः प्रवृत्ति
ऐसा प्रतीत होता है कि समंतभद्र, वट्टकेर या कुंदकुंद के समान प्राचीन आचार्यों की प्राकृत गाथाओं में प्रयुक्त आम, आमक या सचित्त शब्द का कोशकारीय अर्थ प्रकृत्या अपक्व, अनग्निपक्व, कच्चा या सजीव ही है जैसा मुनि रत्नचंद्र जी ने पंचभाषीय अर्धमागधी कोष" में या आप्टे ने संस्कृत- अंग्रेजी कोष" में दिया है। कोशकारों
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