Book Title: Sramana 2003 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 48
________________ ४२ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ उपलब्धता पर निर्भर करती है। यही नहीं, ललवानी ने तो यह भी कहा है कि जो वस्तु हिंसा से उत्पन्न होती है, उसका उपयोग या उपभोग कर हम हिंसा से किसी प्रकार भी नहीं बच सकते। कृत, कारित, अनुमोदन के सिद्धांत के प्रचालन में हिंसा से उत्पन्न पदार्थों के उपयोग में हिंसा कैसे न मानी जाय? सचित्त को अचित्त करने में भी तो जीवघात होता है। यह तो अच्छा है कि सारा संसार जैन नहीं है, नहीं तो उसे सिवाय सल्लेखना के और कोई चारा ही न रहता। वस्तुत: अहिंसा की इतनी सूक्ष्म व्याख्या उत्तरवर्ती आचार्यों की देन है जिससे उसमें व्यावहारिकता का भी लोप हो गया लगता है। अत: इस कोटि के पदार्थों की आत्यंतिक अभक्ष्यता वर्तमान पोषाहार के वैज्ञानिक युग में प्रचण्ड विचार के घेरे में आ गई है। इसका आधार, जैसा पहले कहा है, हिंसा-अहिंसा के अतिरिक्त संज्ञाओं पर भी वैज्ञानिकत: आधारित होना चाहिये। (स) कंद-मूलों में सांद्रित जीवन होने की बात इसलिये कही जाती है कि इनमें प्रत्येक वनस्पतियों की तुलना में जलांश कम होता है। फलतः इनके यूनिट क्षेत्रफल में सजीव या प्रसुप्त कोशिकाओं की संख्या अधिक होगी। चूंकि प्रसुप्त कोशिकाओं में चैतन्य (जो जीवन का लक्षण है और हिंसा का आधार है) की सामान्य मात्रा हरितकायों की तुलना में अल्प होती है, अत: हिंसन का मान अल्प ही होता है। वैसे भी भावप्राणों या चैतन्य गुण का विनाश ही हिंसा माना जाता है। मात्र शरीर विनाश हिंसा नहीं है। (द) कंदमूल के आहरण से भूमिगत पर्यावरण के असंतुलित होने की युक्ति में हिंसा पर आधारित विशेष महत्व नहीं है। यह तो प्रकृति स्वयं संतुलित करती रहती है। वस्तुत: पर्यावरण का असंतुलन हमारी जनसंख्या वृद्धि एवं आवश्यकता वृद्धि पर निर्भर करता है। इसके कारण हम प्रकृति से अधिक लेते हैं, फलत: वह असंतुलित होती है। इसके लिये जनसंख्या के साथ आवश्यकताओं या इच्छाओं के नियमन की आवश्यकता है। इस विषय में हमारे साधु-संतों एवं नेताओं को जनता जनार्दन को सजग करना चहिये। केवल ईश्वर और भक्ति की महिमा इस दिशा में काम न करेगी। (इ) वर्तमान आगमकल्प ग्रन्थ जिनवाणी या आचार्य वाणी 'सत्तेण अणिंदितं' के विषय में भी यह प्रश्न विचारणीय है कि हम 'सुत्त' या 'आगम' किसे माने? आगमों के विभिन्न कोटि के मन्तव्यों में युगानुकूलन होता रहा है। इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार परिवर्धनीयता या वर्णनात्मकता रही है। यही जैन धर्म की दीर्घजीविता का मुख्य कारण है। उनकी प्रमाणिकता ऐतिहासिक दृष्टिकोण से ही माननी चाहिये और ज्ञान-विज्ञान के इस युग में उनकी त्रैकालिक प्रामाणिकता की धारणा का मूल्यांकन करना चाहिये। आपवादिक स्थितियों के निर्देश के आधार पर कुछ प्राचीन ग्रंथों को पूर्णतः अप्रामाणिक मान लेना उदार दृष्टिकोण नहीं है। इन निर्देशों से ही संकेत मिलता है कि प्राचीन ग्रंथों के वर्णन द्रव्य, क्षेत्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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