________________
वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : ४१
हिंसाओं को असंकल्पी बताकर उपेक्षणीय बता दिया। कंद-मूल संबंधी हिंसा की कोटि भी इसी दुर्बल कोटि में आती है। 'विश्व-जीवचिते लोके' की धारणा से अनेक प्रकार की संज्ञाओं एवं व्यवसायों के कारण पांच स्थावर एकेन्द्रियों से ही संबंधित हमारी दैनिक हिंसावृत्ति कितने परिमाण में होगी, यह परिकलित करना बड़ा कठिन है। फिर भी, यह अनंत मानी जा सकती है। यदि अनंत का मान उत्कृष्ट असंख्यात+१ मान लिया जाय और उत्कृष्ट असंख्यात का न्यूनतम मान उत्कृष्ट-संख्यात+१ अर्थात १०५१x१० २१३ (साइंटिफिक कटट्स इन प्राकृत कैनन्स, पेज २८९-९०)२७ मान लिया जाय, प्रत्येक व्यक्ति की दैनिक हिंसा का मान १०५१x१०२१३४१२० (समग्र हिंसा के यूनिट) x ५४१०५=६४१०२७४ यूनिट होगा। इसी प्रकार हम सामान्यत: ८ वर्ग सेमी० कंद-मूलों (जैसे आलू - यह उन सभी कंद मूलों का प्रतिनिधि है जिन्हें हम न्यूनाधिक मात्रा में आहार में लेते हैं) का अपने आहार में प्रयोग करते हैं। कृषि विज्ञानियों एवं श्री मार्डिया ने इसमें विद्यमान साधारण जीवों (सूक्ष्म जीव, कोशिकायें, जिन्हें वैज्ञानिक देख सकते हैं) की संख्या १०८ प्रति वर्ग सेमी० और सजीवता १० ३ यूनिट मानी है। इस आधार पर दैनिक भोजन में कंदमूल-जन्य हिंसा ८x१०x१० ३x१२~१०८ यूनिट होगी। यदि इसके खोदने आदि की एवं आश्रित एकेन्द्रिय जीवों के हिंसन की बात भी जोड़ी जाय, तो यह संख्यात के आधार पर (संख्यात-अचलात्म, १०१२२, त्रिलोकप्रज्ञप्ति) निम्न होगी :
१०१२२४१०x१०२४३ (कृत हिंसा)४८ वर्ग सेमी =२.४४१० १२७ यूनिट। फलत: कंद-मूल के उखाड़ने एवं भक्षण में होने वाली कुल हिंसा १०+२.४x १०१२०~२.४४१०१२७ यूनिट होगी। यह हमारी दैनिक हिंसा, १०२७४ के मान की तुलना में नगण्य ही होगी। (१०.१४४)। इस प्रकार, कंदमूल के आहार से संबंधित हिंसा हमारी समग्र दैनिक हिंसा का नगण्य भाग है।२८ इसके लिये इतना आग्रह समुचित नहीं लगता। आचार्य चंदना जी भी यह मानती हैं कि दुग्ध-उत्पादों का उपयोग, सिल्क की वेषभूषा तथा कृषि कर्म और उसके उत्पादों के उपयोग से संबंधित हिंसा की तुलना में कंदमूलों के उत्पादन एवं भक्षण-जन्य हिंसा नगण्य है (जैन स्पिरिट, अक्टूबर, ९९ पृष्ठ १८)।२९ वस्तुतः हम हिंसा के समुद्र को अहिंसा की नाव से पार करना चाहते हैं। इसकी संभावना कितनी है, यह विचारणीय है।
शास्त्र बताते हैं कि हमारे आहार का हमारी मानसिकता एवं व्यवहार पर प्रभाव पड़ता है। फलतः हमारा आहार सात्विक होना चाहिये। इसके अंतर्गत स्वास्थ्य के लिये उपयोगी कंद-मूलों के प्रभाव की दृष्टि से उनकी अल्पमात्रिक घटकता के आधार पर डॉ० राजकुमार जैन एवं तीर्थंकर ने भी विचार किया है३१ और कहा है कि इससे आचारगत पवित्रता खंडित नहीं होती और स्वास्थता तथा दीर्घ-जीविता भी प्राप्त होती है। यह पवित्रता या सात्विकता देश-काल-सापेक्ष होती है और खाद्यों की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org