Book Title: Sramana 2003 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 41
________________ वनस्पति और जैन आहार शास्त्र : ३५ इन वनस्पतियों की स्थूलता के कारण इनमें अनंत सूक्ष्मजीव, संभवत: निगोदिया जीव, होते होंगे। ये वनस्पति भी प्रकृति में पाये जाते हैं और ये 'हरित' या 'आम' होते हैं। लेकिन ये साधारण वनस्पति प्रत्येक कोटि से भिन्न हैं क्योंकि इनमें एक ही शरीर में अनेक से लेकर अनंत तक जीव रहते हैं। सूक्ष्म अवस्था में इनमें निगोद (अनंत जीवों को स्थान देने वाले) या निगोत कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि सई की एक नोंक के बराबर स्थान में असंख्यात निगोद जीव होते हैं। यदि हम सुई की नोंक का आकार १०४ सेमी० मानें और असंख्यात का मान सामान्य गणना के अनुसार महासंख के समकक्ष १०२० माने (यह मान जैन मान्यतानुसार, सही नहीं है।), तो एक सूक्ष्म निगोदिया जीव १०२४ सेमी० साइज का गोलाकर या अन्य आकार का होगा। इस तरह एक सेमी० विस्तार में कम से कम १०२४ निगोदिया जीव हो सकते हैं (अनंत न भी मानें, तो)। आज के वनस्पति-विज्ञानी की सजीव कोशिका साइज १०४ सेमी० के लगभग होती है। अत: आधुनिक वनस्पति विज्ञान में इन जीवों की समकक्षता पाना कठिन ही है। इतने सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व तो केवल-ज्ञान गम्य है। पर आधुनिक वैज्ञानिकों के लिये साधारण वनस्पतियों की अनंत जीवकायता किंचित् विचारणीय है। अनंतों की एक-कायता, अनेकों की एक-कायता के रूप में माने जाने पर ये वैज्ञानिकों के परजीवी वनस्पति के समकक्ष माने जा सकते हैं। धवला ३.१.२.८७ में इन्हें “एक-सरीर द्वियबहूही जीवेहिं सह' के रूप में बताया है। 'बहु' शब्द अनंतार्थक कब हो गया, यह अनुसंधेय है। फिर भी, इतने छोटे-से विस्तार में इतने अधिक जीवों के कारण, धार्मिक दृष्टि से, इनकी सचित्त य अचित्त भक्ष्यता विचारणीय हो गई है। यही नहीं, साधारण-वनस्पति की परिभाषा बहुत जटिल है, सामान्यजनों के लिये बोधगम्य भी नहीं है। पौधों के विभिन्न भागों में विविध कोटि की वनस्पतिकता के उल्लेख प्रज्ञापना में दिये गये हैं। आहार की आवश्यकता प्राय: सभी जीव आहार-पानी के बिना अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते चाहे वे पारमार्थिक संसारी जीव हों या व्यावहारिक संसारी जीव। दोनों को ही आहार अनिवार्य है। वस्तुत: व्यावहारिक संसारी व्यवहार-मार्ग अपनाकर पारमार्थिकता की ओर अग्रसर होकर जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करता है। व्यावहारिक संसारी जीव अपने स्वास्थ्य-रक्षण एवं रोगमोक्षण के माध्यम से समुचित आहार-विहार ग्रहण कर धर्म-साधन कर पारमार्थिक जीव बन सकता है। जन्म से कोई पारमार्थिक नहीं होता। मूलाचार ४७९ में भी आहार के अनेक उद्देश्यों में आवश्यक क्रियाओं, संयम और धर्म के पालन के उद्देश्य बताये गये हैं। इसीलिये 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनं' की उक्ति बलवती हो गयी है। यह कितना मनोरंजक एवं हास्यास्पद मत है कि धर्म और शरीर स्वास्थ्य परस्परत: असंबद्ध हैं। यदि ऐसा ही होता, तो आयुर्वेद पर ग्रंथ क्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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