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श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३
लिखे जाते और नैपुणिकों की गणना में चिकित्सक का समाहरण क्यों किया जाता, जबकि यह आगमिक परंपरा में पापश्रुत माना जाता है (स्थानांग, स्थान ९)?११ क्या इनके लेखक आचार्य परमार्थी नहीं थे? वस्तुत:, आहार एवं स्वास्थ्य अन्योन्य संबद्ध हैं। समुचित पोषक आहार ही स्वास्थ्य और धर्म का पालक-रक्षक होता है। अत: आहार की गुणवत्ता पर सामान्य जन की ये क्रियाएं निर्भर करती हैं। इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
आहार-विज्ञानी बताते हैं कि हमारे लिये समुचित मात्रक सप्त-घटकी आहार होना चाहिये जिसमें (१) शर्करा, (२) बसा, (३) प्रोटीन, (४) खनिज, (५) विटामिन, (६) हार्मोन और (७) जल होना चाहिए।१२ इनमें कुछ घटक प्रत्येक वनस्पतियों से प्राप्त होते हैं और कुछ साधारण वनस्पतियों से।
दिगम्बर आम्नाय वर्तमान में यह मानता है कि साधारण वनस्पतियों को किसी भी रूप में किसी को भी आहार में नहीं लेना चाहिये। इसके विपर्यास में, श्वेतांबर आम्नाय में इस पर किंचित् स्वैच्छिकता है। वनस्पतियों की भक्ष्यता : किसके लिये?
क्षुल्लक ज्ञान भूषण जी ने अपने ‘सचित्त विवेचन' में इन वनस्पतियों की भक्ष्यता पर प्रकाश डाला है। ये विचार बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में व्यक्त किये गये थे। इस पुस्तक का दूसरा संस्करण १९९४ में दिगम्बर सम्प्रदाय की विश्रुत संस्था वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट, जयपुर से अजमेर जैन समाज के सौजन्य से प्रकाशित हुआ है। इसमें साधारण वनस्पतियों की भक्ष्यता का आगम से और व्यावहारिकत: समर्थन किया गया है। इस युग में अनेक विद्वानों ने भी इस पर सकारात्मक चर्चा की। इसके विवरणों पर कोई समीक्षा देखने में नहीं आयी और उनकी शिष्य मंडली भी इस विषय में मौन है। इससे यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि प्राचीन परम्परावादियों में तथा इस युग के विचारकों में आहार के हरित या साधारण वनस्पति अंश के प्रति विसंवादिता है। शास्त्रीय गाथाओं, शब्दों की व्याकरण-संमत, ऐकान्तिकत: अर्थापतित एवं सकारात्मक व्याख्या की भिन्नता ही इसका कारण है।
पूज्य क्षुल्लकजी (उत्तरवर्ती आचार्य ज्ञानसागर जी) ने यह बताया है कि अभक्ष्यता का संबंध त्रसन्धाती खाद्यों से है। स्थावरों की अभक्ष्यता उनके चार रूपों में से केवल तीन रूपों (वनस्पति, वनस्पतिकायिक एवं वनस्पति जीव) के कारण है जिनमें सजीवता या सचित्तता होती है। यदि साधारण वनस्पति वनस्पतिकाय (दूसरा भेद) के रूप में हो, तो वह भक्ष्य है। वनस्पति का यह रूप अचित्त या निर्जीव होता है। सचित्ताहार त्याग जीवन के उच्चतर स्तर (शिक्षाव्रत या पांचवीं प्रतिमा) पर ही नियमित होता है। इसे सामान्य जन या पाक्षिक श्रावक पर लागू करना सही नहीं है।
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