________________
दिगम्बर जैन जातियाँ : उद्भव एवं विकास : २३
२२. गंगेरवाल ३३
गंगेरवाल भी ८४ जातियों में से एक हैं। इसका गंगेडा, गंगेरवाल, गंगरीक, गोगराज एवं गंगेरवाल आदि विभिन्न नामों से उल्लेख मिलता है। पं० ऋषभराय ने संवत् १८३३ में कविव्रतकथा की रचना की थी। वे स्वयं गंगेरवाल श्रावक थे। २३-२६. दक्षिण भारत की दिगम्बर जैन जातियां
दक्षिण भारत के महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु एवं कर्नाटक आदि प्रान्तों में दिगम्बर जैनों की केवल चार जातियां थीं। पंचम, चतुर्थ, कासार या बोगार और सेतवाल। पहले ये चारों जातियां एक ही थीं और पंचम कहलाती थीं। जैन धर्म वर्ण व्यवस्था का विरोधी था इसलिए उसके अनुयायियों को चातुर्वर्ण से बाहर पांचवें वर्ण का अर्थात पंचम कहते थे, लेकिन जब जैन धर्म का प्रभाव कम हुआ तो नाम रूढ़ हो गया और अन्ततः जैनों ने भी इसे स्वीकार कर लिया। दक्षिण में जब वीर शैव या लिंगायत सम्प्रदाय का उदय हुआ तो उसने इस पंचम जैनों को अपने धर्म में दीक्षित करना शुरू कर दिया और वे पंचम लिंगायत कहलाने लगे। १२वीं शताब्दी तक सारे दक्षिणात्य जैन पंचम ही कहलाने लगे। पहले दक्षिण के सभी जैनों में रोटीबेटी का व्यवहार होता था । ३४
१६वीं शताब्दी के लगभग सभी भट्टारकों ने अपने प्रान्तीय अथवा प्रादेशिक संघ तोड़कर जातिगत संघ बनाए और उसी समय मठों के अनुयायियों को चतुर्थ, सेतवाल, बोगार अथवा कासार नाम प्राप्त हुए । साधारण तौर से खेती और जमींदारी करने वालों को चतुर्थ; कांसे, पीतल के बर्तन बनाने वालों को कासार या बोगार और केवल खेती तथा कपड़े का व्यापार करने वालों को सेतवाल कहा जाता है | हिन्दी में जिन्हें कसेरे या तमेरे कहते हैं वे ही दक्षिण में कासार कहलाते हैं। पंचम में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों के धन्धे करने वालों के नाम समान रूप से मिलते हैं। जिनसेन मठ (कोल्हापुर) के अनुयायियों को छोड़कर और किसी मठ के अनुयायी चतुर्थ नहीं कहलाते। पंचम, चतुर्थ, सेतवाल और बोगार या कासारों में परस्पर रोटीबेटी का व्यवहार होता है।
सन् १९१४ में प्रकाशित दिगम्बर जैन डाइरेक्टरी के अनुसार दिगम्बर जैन जातियों में सबसे अधिक संख्या चतुर्थ जाति की थी जो उस समय ६९२८५ थी जिसके आधार पर वर्तमान में इस जाति की संख्या १० लाख से कम नहीं होनी चाहिए। इसी तरह पंचम जाति के श्रावकों की संख्या ३२५५९, सेतवालों की संख्या २०८८९, बोगारों की संख्या २४३९ तथा कासारों की संख्या ९९८७ थी । ३५ यदि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org