Book Title: Sramana 2003 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 36
________________ ३० : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ जिस प्रकार निपुण चालक भी वायु या गति की क्रिया के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुँचा सकता वैसे ही ज्ञानी आत्मा भी तप, संयम रूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। मात्र जान लेने से कार्य सिद्धि नहीं होती। तैरना जानते हुए भी कोई कार्य चेष्टा न करे तो डूब जाता है। वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आचरण नहीं करता वह डूब जाता है। चन्दन ढोने वाला चन्दन से लाभान्वित नहीं होता मात्र वाहक ही बना रहता है। वैसे ही आचरण से हीन ज्ञानी के ज्ञान भाव का वाहक मात्र है। इससे कोई लाभ नहीं होता।११ ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक प्रसिद्ध अंध-पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जैसे वन में दावानल लगने पर पंगु उसे देखते हुए भी गति के अभाव में जल भरता है और अन्धा सम्पर्क मार्ग न खोज पाने के कारण जल मरता है वैसे ही आचरणविहीन ज्ञान पंगु के समान है और इस चक्षुविहीन आचरण अन्धे के समान है। आचरणविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन आचरण निरर्थक है और संसार रूपी दावानल से साधक को बचाने में असमर्थ है। जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता अकेला अन्धा अकेला पंगु इच्छित साध्य तक नहीं पहुँचते वैसे ही मात्र ज्ञान या मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती वरन् दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है। (४) अनेकान्त की व्यापकता : अनेकान्त दृष्टि एक प्रकार की प्रमाण पद्धति है। वह अत्यन्त व्यापक है। जैसे वह अन्य सभी प्रमेयों में लागू होकर उनका स्वरूप निश्चित करती है वैसे ही वह अपने विषय में भी लागू होती है और अपना स्वरूप विशेष स्फूट करती है। प्रमेयों में लागू होने का यह अर्थ है कि उनके विषय में स्वरूप विषयक जो अलग-अलग दृष्टियाँ बनी हुई हैं, उन सबका योग्य रूप से समन्वय करके अर्थात् उन सब दृष्टियों का स्थान निश्चित करके प्रमेयों का स्वरूप कैसा होना चाहिए यह स्थिर करना। जैसे कि जगत् के मूल तत्त्व और जड़ - चेतन के विषय में अनेक विचार हैं। कोई उन्हें मात्र भिन्न मानता है तो कोई मात्र अभिन्न। कोई मात्र नित्य मानता है तो कोई मात्र अनित्य रूप मानता है। कोई एक मानता है तो कोई अनेक कहता है। अत: अनेक विकल्पों के स्वरूप तारतम्य और अविधपने का विचार करके समन्वय करना कि ये तत्त्व सामान्य दृष्टि से देखने पर अभिन्न नित्य और एक हैं तथा विशेष दृष्टि से देखने पर भित्र नित्य और एक भी हैं। प्रमेय के विषय में अनेकान्त की प्रवृत्ति का यह एक उदाहरण हुआ।१२ इसी प्रकार अनेकान्त दृष्टि जब अपने बारे में होती है तब अपने स्वरूप के विषय में वह सूचित करती है कि वह अनेक दृष्टियों का समुच्चय होने से अनेकान्त तो है ही परन्तु वह एक स्वतंत्र दृष्टि होने से उस रूप में अनेकान्त दृष्टि भी है। इसी तरह अनेकान्त दूसरा कुछ भी नहीं है, वह तो भिन्न-भिन्न दृष्टि रूप इकाइयों का सच्चा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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