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सिद्धसेन दिवाकर का जैन दर्शन को अवदान : २९
अर्थ तत्त्व मानती है और क्रिया शून्य काल में नहीं, उसे एवंभूत नय कहते हैं। ऐसा चारों नयों का स्वरूप है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शब्द आदि तीन नय मात्र वर्तमान कालस्पर्शी ऋतुसूत्र नय के आधार पर उत्तरोत्तर सूक्ष्म विशेषताओं को लेकर प्रवृत्त होते हैं और वे सब उसी के विस्तार हैं। ऋजुसूत्र नय एक वृक्ष जैसा है, तो शब्द नय उसकी शाखा (डाल) है। समभिरूढ़ उसकी प्रशाखा - टहनी है और एवंभूत उस टहनी की भी प्रतिशाखा - सबसे छोटी और पतली शाखा है। (३) ज्ञान और क्रिया के एकान्तिक आग्रह का निराकरण : . ज्ञान और क्रिया के एकान्तिक आग्रह को चुनौती देते हुए सिद्धसेन ने घोषणा की कि ज्ञान और क्रिया दोनों आवश्यक हैं। ज्ञान और शक्ति रहित क्रिया उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार क्रिया रहित ज्ञान अर्थहीन है। ज्ञान और क्रिया का सम्यक् संयोग ही वास्तविक सुख प्रदान कर सकता है। जन्म और मरण से मुक्ति पाने के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों आवश्यक हैं।
साधना मार्ग में ज्ञान और क्रिया के श्रेष्ठतत्त्व को लेकर विवाद चला आ रहा है। वैदिक युग में जहाँ विहित आचरण की प्रधानता रही है वहाँ औपनिषदिक युग में ज्ञान पर बल दिया जाने लगा। भारतीय चिन्तकों के समक्ष प्राचीन समय से ही यह समस्या रही है जिसका समाधान ज्ञान और क्रिया का समन्वय कर किया गया है। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती युग में जब श्रमण परम्परा देहदण्डनपरक तप साधना में और वैदिक परम्परा यज्ञ-यागपरक क्रियाकाण्डों में ही साधना की इति श्री मानकर मात्र आचरणात्मक पक्ष पर बल देने लगी थी तो उन्होंने उसे ज्ञान से समन्वित करने का प्रयास किया था। महावीर और उनके बाद जैन विचारकों ने भी ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित आचरण पथ का उपदेश दिया। जैन विचारकों का यह स्पष्ट निर्देश था कि मुक्ति न तो मात्र ज्ञान से प्राप्त हो सकती है और न केवल सदाचरण से। ज्ञानमार्गी औपनिषदिक एवं सांख्य परम्पराओं की समीक्षा करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया कि, कुछ विचारक मानते हैं कि पाप का त्याग किए बिना ही मात्र आर्यतत्त्व को जानकर ही आत्मा सभी दुःखों से छूट जाती है। लेकिन बन्धन और मुक्ति के सिद्धान्त में विश्वास करने वाले ये विचारक संयम का आचरण नहीं करते हुए केवल वचनों से ही आत्मा को आश्वासन देते हैं। सूत्रकृतांग में कहा है कि मनुष्य चाहे वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो, अनेक शास्त्रों का जानकार हो अथवा अपने को धार्मिक प्रकट करता हो, यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कर्मों के कारण दु:खी ही होगा। अनेक भाषाओं का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता, मन्त्रादि विद्या भी उसे कैसे बचा सकती है? असत् आचरण में अनुरक्त अपने आपको पण्डित मानने वाले लोग वस्तुत: मूर्ख ही हैं। आचरण विहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार समुद्र से पार नहीं होते। मात्र शास्त्रीय ज्ञान से, बिना आचरण के कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता।
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