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सिद्धसेन दिवाकर का जैन दर्शन को अवदान : २७
अनेकान्त के अंगभूत दर्शन एवं ज्ञान की मीमांसा में उन्होंने अपने विशिष्ट प्रतिभा का परिचय देते हुए अपने उपयोग अभेदवाद की स्थापना की है। केवल दर्शन और केवल ज्ञान की उत्पत्ति क्रम से होती है ऐसा मत पहले से आगम परम्परा में प्रसिद्ध था। इसके अतिरिक्त इन दोनों की उत्पत्ति युगपत् होती है ऐसा मत भी प्रचलित था। इन दोनों मतों के सामने सिद्धसेन ने अपना अभेदवाद रखा। उन्होंने क्रमवादिता और युगपत्वादिता में दोष दिखाते हुए अभेदवाद या एकोपयोगवाद की स्थापना की। इस क्रम में ज्ञानावरण और दर्शनावरण का युगपत् क्षय मानते हुए यह भी बतलाया है कि दो उपयोग एक साथ कहीं नहीं होते और केवली में वे क्रमश: भी नहीं होते। ज्ञान और दर्शन उपयोगों का भेद मन: पर्यय ज्ञान अथवा छद्मावस्था तक ही चलता है। केवल ज्ञान हो जाने पर कोई नहीं रहता।
चूंकि केवली नियम से अस्पृष्ट पदार्थों को जानता है और देखता है। इसलिए भेद के बिना भी अभेदरूप से ज्ञान और दर्शन सिद्ध होते हैं। इस प्रकार सिद्धसेन केवली के ज्ञान दर्शनोपयोग विषय में अभेदवाद के पुरस्कर्ता हैं। टीकाकार अभयदेवसूरि और ज्ञानबिन्दु के कर्ता उपाध्याय यशोविजय ने इसी मत का प्रतिपादन किया है। (२) नयों का पुनर्वर्गीकरण :
सिद्धसेन दिवाकर ने नयों का पुनर्वर्गीकरण किया। उन्होंने जैनागमों में प्रसिद्ध नैगमादि सात नयों के स्थान पर छ: नयों की स्थापना की। नैगम को स्वतंत्र नय न मानते हुए उसे संग्रह एवं व्यवहार में समाविष्ट कर दिया जो द्रव्यास्तिक नय के भेद हैं। संग्रह और व्यवहार के बाद ऋजसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत इन चार नयों को पर्यायास्तिक नय के भेद कहा है। द्रव्यास्तिक नय यानी अभेदगामीदृष्टि, पर्यायास्तिक नय यानि भेदगामी दृष्टि। मनुष्य जब भी कुछ सोचता या कहता है तब या तो अभेद की ओर झुककर या फिर भेद की ओर झुककर। अभेद की ओर झुककर किए गए विचार और उसके द्वारा प्रतिपादित वस्तु को संग्रह या सामान्य कहते हैं। भेद की ओर झुककर किए गए विचार और उसके द्वारा प्रतिपादित वस्तु को विशेष कहते हैं। अवान्तर दृष्टि से सामान्य और विशेष के चढ़ते उतरते क्रम से चाहे जितने भेद किए जाएं पर वे सभी भेद संक्षेप में दो राशियों में समाविष्ट होते हैं। वे ही दो राशियां अनुक्रम से संग्रहप्रस्तार और विशेष प्रस्तार हैं। शास्त्र के वचन मुख्य रूप से इन दो राशियों में आ जाते हैं। क्योंकि उनमें से कुछ सामान्य बोधक होते हैं और कुछ विशेष बोधक। इन दो राशियों के समाविष्ट होने वाले सभी शास्त्रीय वचनों की प्रेरक दृष्टि भी मुख्य रूप से दो हैं। सामान्यवचन राशि का प्रेरक अभेदगामी दृष्टि द्रव्यास्तिक नय है और विशेष वचन राशि की प्रेरक भेदगामी दृष्टि पर्यायास्तिक नय है। ये दोनों नय ही समग्र विचार अथवा विचार जनित समस्त शास्त्र वाक्य के आधारभूत
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