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श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३
लिखा हुआ मिलता है। जिससे यह एक क्षत्रिय जाति ज्ञात होती है। इस का विकास किसी लम्बकांचन नामक नगर से हुआ जान पड़ता है। इसमें खरिया, रावत, ककोटा
और पचोले गोत्रों का भी उल्लेख मिलता है। इनमें बुढले और लमेचू ये दो भेद पाए जाते हैं, जो प्राचीन नहीं है। बाबू कामता प्रसाद जी ने प्रतिमालेखसंग्रह में लिखा है कि - "बुढले लंबेचू अथवा लम्बकंचुक जाति का एक गोत्र था, किन्तु किसी सामाजिक अनबन के कारण संवत् १५९० और १६७० के मध्य किसी समय यह पृथक जाति बन गई।” बुढेले जाति के साथ रावत संघई आदि गोत्रों का उल्लेख मिलता है। इससे प्रकट है कि इस गोत्र के साथ अन्य लोग भी "लबेचुओं से अलग होकर एक अन्य जाति बनाकर बैठ गए। इन जातियों के इतिवृत्त के लिए अन्वेषण की आवश्यकता है। १०. हुंबड या हूमड२१
यह जाति भी पूर्वोक्त चौरासी जातियों में से एक है। यह जाति आचार्य विनयसेन के शिष्य कुमारसेन द्वारा संवत् ८०० के लगभग बागड़ देश में स्थापित की गई थी। यह जाति सम्पन्न और वैभवशालिनी रही है। इस जाति का निवास स्थान गुजरात, महाराष्ट्र और बागड़ प्रान्त में रहा है। यह दस्सा और बीसा दो भागों में बंटी हुई है। इस जाति में उत्पन्न श्रावक अनेक राज्यमंत्री और कोषाध्यक्ष आदि सम्मानीय पदों पर प्रतिष्ठित रहे हैं। इनमें १८ गोत्र प्रचलित हैं। खैरजू, कमलेश्वर, काकडेश्वर, उत्तरेश्वर, मंत्रेश्वर, भमेश्वर, भद्रेश्वर, गणेश्वर, विश्वेश्वर, संखेश्वर, आम्बेश्वर, बाचनेश्वर, सोमेश्वर, राजियानों, ललितेश्वर, काश्वेश्वर, बुद्धेश्वर और संघेश्वर। इसके अतिरिक्त इस जाति के द्वारा निर्मित मंदिरों में सबसे प्राचीन झालरापाटन भगवान् में शांतिनाथ का है जिसमें हुमडवंशी शाह पीपा ने वि०सं० ११०३ में प्रतिष्ठा करवाई थी। वर्तमान में हूमड समाज की जनसंख्या २-३ लाख होगी। बम्बई, उदयपुर, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, सागवाड़ा जैसे नगर इस समाज के प्रमुख केन्द्र हैं। ११. गोलापूर्व
जैन समाज की ८४ जातियों में गोलापूर्व भी एक सम्पन्न जाति रही है। इस जाति का वर्तमान में अधिकतर निवास बुन्देलखण्ड में पाया जाता है। १२वीं और १३वीं शताब्दी के मूर्ति लेखों से इसके समृद्धि का अनुमान किया जा सकता है। इस जाति का निवास गोल्लागढ़ (गोलाकोट) की पूर्व दिशा से हुआ है। उसकी पूर्व दिशा में रहने वाले गोलापूर्व कहलाते हैं। यह जाति किसी समय इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय थी किन्तु व्यापार करने के कारण वणिक समाज में इसकी गणना होने लगी। मूर्तिलेखों
और मंदिरों की विशालता से गोलापूर्वान्वय गौरवान्वित है। वर्तमान में भी इस जाति द्वारा निर्मित अनेक शिखरबन्द जिनालय शोभा बढ़ा रहे हैं।
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