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की अपेक्षा से पाँच प्रकार का है। ज्ञेयाकार परिणति के भेद से संयात-असंख्यात् व अनन्त है।३९
आभिनिबोधिक ज्ञान (मतिज्ञान)
सामान्यत: बुद्धि के माध्यम से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। मन धातु में क्तिन् प्रत्यय लगने से मति शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है- बुद्धि, तर्क आदि। इस आधार पर तर्कपूर्ण ज्ञान ही मतिज्ञान सिद्ध होता है। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा और चिन्ता को एक-दूसरे का पर्यायवाची कहा है।४० विशेषावश्यकभाष्य में आचार्य भद्रबाहु ने ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा आदि १ को मतिज्ञान का पर्यायवाची बतलाया है। मतिज्ञान को परिभाषित करते हुए उमास्वाति ने कहा है- इन्द्रिय और अनिन्द्रिय के निमित्त से उत्पन्न ज्ञान मतिज्ञान है।४२ सर्वार्थसिद्धि के अनुसार इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किया जाता है, जो मनन करता है या मननमात्र, मति कहलाता है।४३ यहाँ प्रश्न होना स्वाभाविक है कि अभिनिबोधिक ज्ञान विषय के अन्तर्गत मतिज्ञान की चर्चा की जा रही है। अत: यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि आगमों में आभिनिबोधिक ज्ञान का जो अर्थ इष्ट है, तत्त्वार्थसूत्र में भी वही अर्थ लिया गया है। नन्दीचूर्णि के आधार पर आचार्य महाप्रज्ञ ने आभिनिबोधिक ज्ञान की उत्पत्ति के दो नियम बताये हैं(१) अर्थ (इन्द्रिय विषय) की अभिमुखता- उसका उचित देश में होना और (२) नियतबोध- प्रत्येक इन्द्रिय अपने नियत विषय का बोध करती है। अत: इन दो नियमों के आधार पर होनेवाला ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान है।४४ जहाँ तक आभिनिबोधिक शब्द के लाक्षणिक अर्थ का प्रश्न है तो आगमों में इसका लाक्षणिक अर्थ प्राप्त नहीं होता है। आभिनिबोधिक और मति के पौर्वापर्य के विषय में जैन विद्वान् डॉ० नथमल टाटिया जी का कहना है कि - The terms mati-Jiana seems to be older than the terms ābhinibodhika. The Karma theory speaks of matiJñanāvarana but never abhinibodhika-Jñanāvarana. Had the term been as old as 'mati', the karma theory which is one of the oldest tenets of Jainism must have mentioned it with reference to the āvarana that veils it.
डॉ० टाटिया जी के इस कथन के सन्दर्भ में प्रश्न उठता है कि कर्म की उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख सर्वप्रथम किस ग्रन्थ में हआ है? ऋषिभाषित में जो अष्टकर्मग्रन्थि का उल्लेख आया है इसकी विस्तृत व्याख्या उत्तराध्ययन में उपलब्ध है। आगम साहित्य में अष्टमूल प्रकृतियों और उनके अवान्तर भेदों की चर्चा करनेवाला यह प्रथम ग्रन्थ है। सम्भवत: उत्तराध्ययन में ही सर्वप्रथम अष्टकर्म प्रकृतियों को घाती और अघाती कर्म में वर्गीकृत किया गया है। इसमें ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयुष्य की ४, नामकर्म की २, गोत्र की २ और अन्तराय
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