Book Title: Sramana 2000 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 211
________________ साहित्य सत्कार चन्द्रलेखाविजयप्रकरण, कर्ता- पूर्णतलगच्छीय मुनि देवचन्द्र, सम्पा०मुनि प्रद्युम्नविजयगणि; प्रकाशक- शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर, शाहीबाग, अहमदाबाद ३८०००४, प्रथम संस्करण १९९५ ई०, आकार-डिमाई, सजिल्द, पृष्ठ ३४+११३, मूल्य ५०/- रुपये। प्रस्तुत कृति चन्द्रलेखाविजयप्रकरण के रचनाकार मुनि देवचन्द्र जी कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि के शिष्यों में से एक थे। १२वीं शताब्दी में संस्कृत भाषा में निबद्ध इस नाटक की एकमात्र प्रति जैसलमेर ज्ञान भण्डार से प्राप्त हुई है। यह प्रति चूँकि अशुद्धि से भरी हुई थी अत: इसका संशोधन और सम्पादन भी एक दुरूह कार्य था। तपागच्छीय आचार्य विजयदेवसूरि के प्रशिष्य और आचार्य विजय हेमचन्द्रसूरि के शिष्य मुनि प्रद्युम्नविजयगणि ने अत्यन्त परिश्रम से सफलतापूर्वक उक्त कृति का सम्पादन कर विद्वत् जगत पर महान् उपकार किया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में मुनिश्री जम्बूविजय जी और डॉ० हरिवल्लभ चूनीलाल भयाणी द्वारा लिखित दो शब्द तथा ग्रन्थ सम्पादक द्वारा लिखी गयी प्रस्तावना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ग्रन्थ की भूमिका के अन्तर्गत ८ पृष्ठों में विद्वान् सम्पादक ने प्रति परिचय, ग्रन्थकार और ग्रन्थ का परिचय दिया है। इसके पश्चात् १०० पृष्ठों में नाटक के पाँचों अंक दिये गये हैं। ग्रन्थ के अन्त में ५ परिशिष्ट भी दिये गये हैं। ग्रन्थ की साज-सज्जा आकर्षक व मुद्रण सुस्पष्ट है। संस्कृत भाषा एवं साहित्य पर शोध करने वाले विद्वानों और शोधार्थियों के लिये पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। ऐसे दुर्लभ, प्राचीन और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के सम्पादन और प्रकाशन के लिये सम्पादक और प्रकाशक दोनों ही अभिनन्दनीय हैं। नगरकोट-कांगड़ा महातीर्थ, लेखक-सम्पादक- श्री भंवरलाल नाहटा, प्रकाशक- श्री सोहन लाल कोचर, ८६, कैनिंग स्ट्रीट, कलकत्ता-७००००१; प्रथम संस्करण वि०सं० २०४८, आकार- डिमाई, पृष्ठ ८+१३८+९ चित्र; मूल्य२५/- रुपये मात्र। जनश्रुत्यानुसार हिमालय की गोद में बसे जैनतीर्थ नगरकोट की स्थापना महाभारतकालीन राजा सुशर्मसेन ने की थी और इसका नाम सुशर्मपुर रखा था। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र होने से यह स्थान बहुत लम्बे समय तक बाहरी आक्रमणों से मुक्त रहा। महमूद गजनवी के समय यह क्षेत्र त्रिगर्त देश के अन्तर्गत माना जाता रहा। ई० सन् की ११वीं शती से लेकर १८वीं शती तक यह नगर समय-समय पर विभिन्न देशी-विदेशी शासकों द्वारा लूटा और नष्ट किया जाता रहा। अपने वैभव के समय यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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