Book Title: Sramana 2000 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 212
________________ २०३ अनेक जैन मन्दिर शोभायमान थे। राजनैतिक अस्थिरता के कारण यहाँ के जैन मतावलम्बी बड़ी संख्या में अन्यत्र जाकर बस गये तथा जो बचे थे उन्होंने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया और यह नगर पूर्णरूपेण जैन मतावलम्बियों से शून्य हो गया। वि० सं० १४८४ में खरतरगच्छीय मुनि जयसागर उपाध्याय द्वारा प्रणीत विज्ञप्तिलेख (मुनि जिनविजय ने सम्पादित कर ई० सन् १९१६ में आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर से प्रकाशित कराया) के आधार पर इसी शती के प्रारम्भ में इस तीर्थ की खोज की गयी। जैन मुनिजनों का यहाँ आगमन हुआ और यहाँ जिन मन्दिरादि का निर्माण कर इसे पुनः प्राचीन गौरव प्रदान करने का प्रयत्न प्रारम्भ हुआ, जो सराहनीय है। प्रस्तुत पुस्तक के लेखक स्वनामधन्य श्री भँवरलाल जी नाहटा हैं। उनके द्वारा पिछले सात दशकों से की जा रही साहित्यसेवा से पूरा विश्व उनके समक्ष विनयानवत् है। प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने प्राचीन जैन ग्रन्थों में उल्लिखित इस तीर्थ के विवरण को बड़े ही प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत कर विद्वानों के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक तथा मुद्रण निर्दोष है। ऐसे उपयोगी पुस्तक को अल्प मूल्य में उपलब्ध कराकर प्रकाशक संस्था ने जैन समाज पर महान् उपकार किया है। मिले मन भीतर भगवान् लेखक- श्री विजयकलापूर्णसूरि जी महाराज, हिन्दी अनुवादक- महो० श्री विनयसागर एवं श्री नैनमल विनयचन्द्र सुराणा; प्रकाशकश्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मन्दिर, भूपतवाला, हरिद्वार-२४९४१० (उत्तर प्रदेश); आकार-डिमाई; पृष्ठ १७+२३५, संशोधित आवृत्ति १९९९ ई०, मूल्य ७५/- रुपये मात्र। . आत्मा आनन्दमय, ज्ञानमय और सुखमय है, किन्तु वह भ्रान्तिवश अथवा यह कहें कि कर्मों में बंधे होने से भवभ्रमण करती रहती है जिसकी मुक्ति प्रभु की भक्ति से ही सम्भव है। भक्ति ही वह मार्ग है जो जीव को मुक्ति के प्रासाद में पहुँचा देती है। भक्ति किस प्रकार की जाये? भक्ति कितने प्रकार की होती है? भक्ति के माध्यम से भक्त किस प्रकार भगवान् बन सकता है? नेत्रों से अगोचर प्रभु का दर्शन मन के भीतर किस प्रकार किया जा सकता है? इस प्रकार के विभिन्न विषयों के रहस्य को इस पुस्तक में शास्त्रसम्मत विधि से स्पष्ट किया गया है। प्रारम्भ में यह पुस्तक गुजराती भाषा में प्रकाशित हुई थी, जो अत्यधिक लोकप्रिय हुई। हिन्दी भाषा-भाषी भी इससे लाभान्वित हों, इस दृष्टि से इसका हिन्दी संस्करण भी प्रकाशित किया गया है। वस्तुतः यह पुस्तक प्रत्येक जैन परिवार में पठनीय और सभी के मनन योग्य है। ऐसे सुन्दर प्रकाशन का सर्वत्र आदर होगा, इसमें सन्देह नहीं। पुस्तक की साज-सज्जा नयनाभिराम व मुद्रण अत्यन्त सुस्पष्ट एवं सन्दर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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