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मानवता सम्बन्धी प्रवचनों का संकलन है। इस ग्रन्थ में कुल १९ प्रवचन संकलित हैं। इसका सम्पादन सन्तरत्न मुनिश्री नेमीचन्द जी ने बड़े ही मनोयोगपूर्वक किया है। इनमें आचार्यश्री ने हमें अपने नैतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्तर को ऊपर उठाने की प्रेरणा दी है। मनुष्य शरीर की महत्ता, ब्रह्माण्ड में मनुष्य का श्रेष्ठत्व, इस श्रेष्ठत्व को प्राप्त करने, इसकी सार्थकता, पशुता और मानवता में अन्तर, मनुष्यता की आधारशिला- नैतिकता आदि पर केन्द्रित यह ग्रन्थ प्रत्येक व्यक्ति के पढ़ने और मनन करने के लिए उत्तम और प्रेरणास्पद है। पुस्तक की छपाई, कलेवर, कागज एवं साज-सज्जा अति उत्तम है।
प्रेरणा के पावन पल-आचार्यश्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री प्रकाशक- श्री तारकगुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर, राजस्थान, प्रथम संस्करण १९९८ ई०, आकार- डिमाई; पक्की जिल्द, पृ० १६०, मूल्य- ५०/- रुपये।
आचार्यश्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री द्वारा लिखित इस पुस्तक में कुल २० प्रेरक कथाओं को संकलित किया गया है, जो विभिन्न धर्मग्रन्थों एवं लोककथाओं में प्रचलित रही हैं। इस ग्रन्थ में प्रेरक पात्रों के माध्यम से मनुष्य के गुणों को उजागर किया गया है तथा यह बात स्पष्ट की गयी है कि मनुष्य की पहचान उसके गुणों से ही होती है। इन गुणों में त्याग, सेवा, सच्चाई, सद्भाव, दयालुता, उदारता तथा सत्पुरुषार्थ प्रमुख हैं। ग्रन्थ में प्रकाशित कथाएँ इन्हीं गुणों के इर्द-गिर्द केन्द्रित हैं तथा जीवन जीने की शैली को प्रतिपादित करने के सूत्ररूप में हैं। पुस्तक की साज-सज्जा, मुद्रण, सम्पादन, कागज आदि अति उत्तम है।
मूलसंघ और उसका साहित्य, पं० नाथूलाल जैन शास्त्री, प्रकाशककुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, तुकोगंज, इन्दौर, पृष्ठ २०२, प्रथम संस्करण, मूल्य ७०.००।
समाज के बहुश्रुत विद्वान् पं० नाथू लाल जी शास्त्री की यह कृति पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पूर्व निदेशक प्रोफेसर सागरमल जी द्वारा लिखित 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक पुस्तक के उत्तर में लिखी गई है। इसमें उन्होंने आचार्य गुणधर और उनके कसायपाहुड को आचार्य धरसेन और उनके षड्खण्डागम से पूर्ववर्ती सिद्ध कर आचार्य कुन्दकुन्द और मूलसंघ को प्राचीन सिद्ध किया है। मूलाचार, भगवती आराधना और तिलोयपण्णत्ति के उन उद्धरणों की भी मीमांसा की गई है जिनके आधार पर उन्हें मूल से यापनीय कहा गया है। ग्रन्थ पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय है।
The Doctrine of Jainas -- by Walther Schubring, published by Motilal Banarasidas, New Delhi, 200, p. 388, Price- Rs. 295/-.
The original book "Die Lehre der Jainas, nach den alten quellen dargestellt" had been published in 1934 and its English translation in
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