Book Title: Sramana 2000 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 213
________________ २०४ श्रीविजयरामचन्द्रसूरि गुणस्तुतिमाला सम्पा० मुनिश्री मोक्षरतिविजय; प्रकाशकश्री सुबोध चन्द्र नानालाल शाह, १२, देवश्रुति अपार्टमेन्ट, २३, सरस्वती सोसायटी, पालड़ी, अहमदाबाद-३८०००७, गुजरात, आकार- क्राउन, पृष्ठ ६+५८; प्रथम संस्करण १९९९ ई०, मूल्य ५०/- रुपये। __ तपागच्छीय परम्परा में समय-समय पर अनेक प्रभावक आचार्य हो चुके हैं। इसी क्रम में २०वीं शती के प्रारम्भ में हुए आचार्य विजय रामचन्द्रसूरि का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। आचार्यश्री का विशाल शिष्य समुदाय आज भी उन्हीं के नाम से जाना जाता है। प्रस्तुत लघु पुस्तक में आचार्यश्री की परम्परा के मुनिजनों विजयपुण्यपालसरि जी, विजयमुक्तिप्रभसूरि, मुनि तपोरत्नविजय, मुनिमोक्षरतिविजय, मुनि सम्यकदर्शनविजय तथा भालचन्द्र कवि, पं० शिवलाल नेमचन्द्रशाह, श्री सुबोधचन्द्र नानालाल शाह एवं कु० मीना शामजी शाह आदि द्वारा संस्कृत भाषा में रचित उन कृतियों का संकलन है, जिसमें आचार्यश्री के गुणों का वर्णन है। सर्वश्रेष्ठ कागज पर मुद्रित इस पुस्तक की साज-सज्जा अत्यन्त नयनाभिराम और मुद्रण कलापूर्ण है। योगविंशिका रचनाकार-आचार्य हरिभद्रसूरि; वृत्तिकार- महो० यशोविजय गणि; गुजराती भाषा में विवेचक- पंन्यास अभयशेखर विजयगणि; संशोधक आचार्य श्री जयघोषसूरि जी; प्रकाशक- दिव्यदर्शन ट्रस्ट, ३९, कलिकुंडसोसायटी, . धोलका-३८७८१०, गुजरात, प्रथम संस्करण- वि० सं० २०५५, आकारडिमाई, पक्की जिल्द बाइंडिग, पृष्ठ १६+२८८, मूल्य १००/- रुपये मात्र। प्रस्तुत कृति ई० सन् की ८वीं शताब्दी में हुए महान् ग्रन्थकार याकिनी महत्तरासूनु विद्याधरकुलीन आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित योगविंशिका पर विक्रम सम्वत् की १७वीं-१८वीं शती के प्रख्यात् रचनाकार महोपाध्याय यशोविजयगणि द्वारा लिखित टीका की गुजराती भाषा में लिखी गयी बृहद् विवेचना है जो पंन्यास श्री अभयशेखरगणि द्वारा प्रणीत है। इसमें सबसे पहले मूल गाथा, फिर उसके पश्चात् उस पर रची गयी वृत्ति, वृत्ति का अर्थ, तत्पश्चात् उसका विस्तृत विवेचन है। चूंकि यह विवेचन गुजराती भाषा में हैं अत: इससे वही लाभ उठा सकते हैं जो उक्त भाषा के जानकार हैं। ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित होना अपरिहार्य है ताकि इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार हो सके। उत्तम कागज पर सुस्पष्ट मुद्रित ग्रन्थ का मूल्य भी अल्प ही है। गुजराती जैन समाज में इसका अत्यधिक आदर होगा, इसमें सन्देह नहीं। श्री श्रमण क्रियानां सूत्रो प्रका०- श्री श्रुतज्ञान प्रसारक सभा, अहमदाबाद, तृतीय संस्करण १९८२ ई०, आकार- रायल, पक्की बाइंडिंग, पृष्ठ ३४८, मूल्य १३/- रुपये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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