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उपर्युक्त विभाजित ज्ञान को पं० दलसुखभाई मालवणिया तीन भूमिकाओं में व्यक्त करते हैं। उनका कहना है कि ज्ञान-चर्चा के विकासक्रम को आगम के आधार पर देखना हो तो उनकी तीन भूमिकाएँ हमें स्पष्ट दीखती हैं।
(१) प्रथम भूमिका तो वह, जिसमें ज्ञानों को पाँच भेदों में ही विभक्त किया गया है।२८ इसके अन्तर्गत उन्होंने भगवतीसूत्र में किये गये ज्ञान के विभाजन को रखा है।
(२) द्वितीय भूमिका में ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों में विभक्त करके पाँच ज्ञानों में से मति और श्रुत को परोक्षान्तर्गत और शेष अवधि, मनापर्यव और केवल को प्रत्यक्ष के अन्तर्गत किया गया है।२९ इस भूमिका के अन्तर्गत स्थानांगसूत्र में वर्णित ज्ञान के भेद-प्रभेद आते हैं।
(३) तृतीय भूमिका में इन्द्रियजन्य मतिज्ञान का परोक्ष के अन्दर समावेश किया गया है अर्थात् प्रत्यक्ष और परोक्ष उभय में स्थान दिया गया है जिसमें लोकानुसरण स्पष्ट है।३० इस भूमिका के अन्तर्गत पण्डितजी ने नन्दीसूत्र में वर्णित ज्ञान के भेद-प्रभेद को रखा है।
उपर्युक्त भूमिकाओं में प्रथम भूमिका प्राचीन मालूम पड़ती है, क्योंकि भगवती में ज्ञान के पाँच प्रकार तथा मतिज्ञान के चार प्रकारों को बताने के पश्चात् नन्दी के अनुसार जानने का निर्देश दिया गया है। यदि नन्दी के आधार पर देखा जाए तो भगवती में प्रत्यक्ष और परोक्ष का वर्णन उपलब्ध नहीं है तथा उसमें आभिनिबोधिक के अवग्रह, ईहा आदि चार प्रकार बताये गये हैं जबकि नन्दी में आभिनिबोधिक के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो भेद किये गये हैं जिनका वर्णन भगवती में उपलब्ध नहीं है। हाँ! आगम क्रमांक की दृष्टि से स्थानांगसूत्र में वर्णित ज्ञान के प्रकार को ज्ञान-विकास की प्रथम भूमिका कही जा सकती है। लेकिन स्थानांगसूत्र में कुछ ऐसे तथ्यों का भी समावेश है जिसके कारण विद्वतजन उसे बाद की रचना मानते हैं। इस सन्दर्भ में आचार्य देवेन्द्रमुनि जी का कहना है कि जैनदृष्टि से भगवान् महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी थे। अत: वे पश्चात् होनेवाली घटनाओं का संकेत करें, इसमें किसी भी प्रकार का आश्चर्य नहीं है। जैसेनवम स्थान में आगामी उत्सर्पिणीकाल के भावी तीर्थङ्कर महापद्म का चरित्र दिया है,
और भी भविष्य में होने वाली अनेक घटनाओं का उल्लेख है।३१ आचार्यश्री का यह मत उनकी धार्मिक भावना को प्रदर्शित करता है। इस सन्दर्भ में पं० दलसुखभाई मालवणिया का कथन तर्कपूर्ण लगता है। उनका मानना है कि स्थानांग जैसे अंग ग्रन्थों में वीरनिर्वाण की छठी शताब्दी की घटना का भी उल्लेख आता है; किन्तु इस प्रकार के कुछ अंशों को छोड़कर बाकी सब भाव पुराने हैं। भाषा में यत्र-तत्र काल की गति
और प्राकृत भाषा होने के कारण भाषा-विकास के नियमानुसार परिवर्तन होना अनिवार्य है।३२ आचार्य महाप्रज्ञ के मतानुसार महावीर ने किसी आगम की रचना नहीं की। उन्होंने
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