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का मन उसी में लगा रहता है। उसके पश्चात् उपांशु जप करना चाहिए और इसका ठीक अभ्यास होने पर मानस जप (तो श्रेष्ठ है ही) करना चाहिए। इसमें जप का स्थान कण्ठ न होकर हृदय देश होता है। हृदय में ही मन्त्र का चिन्तन चलता रहता है। यह मानस जप ही अभ्यास बढ़ने पर ध्यान का रूप ले लेता है।
जप से मन्त्र अपनी पूरी शक्ति को प्राप्त होता है और होम पूजा आदि से उसका स्वामी देवता तृप्त होता है। एक तो स्वयं अग्नि, फिर उसे हवा की सहायता मिल जाय तो क्या नहीं कर सकती। इसी तरह पहले तो मन्त्र फिर वह जप होम सहित हो तो क्या नहीं कर सकता।
आज के समय मन्त्र साधना के लिए एकान्त स्थान में मन्त्र जपना अयोग्य कहा है; क्योंकि यदि कोई व्यन्तर भय दिखाता है तो साधक उसको सहन नहीं कर सकता है; कारण कि हम संहनन हीन हैं और शक्ति अल्प है। एकान्त में जपने वालों के भ्रष्ट हो जाने की अधिक सम्भावना है। मन्त्र को मन्दिर जी में या अपने किसी एकान्त स्थान में रात्रि में (या मन्त्र के साथ बताई गई बेला में) दीपक जलाकर जपना चाहिए और एक आदमी अपने पास रखना चाहिए, इससे साधना में सहायता मिलती है और निर्विघ्न सिद्धि होती है।
होम की विधि हमने 'जिनालय प्रतिष्ठा विधि' पुस्तक में विस्तार से दी है। होम के समय मन्त्र के अन्त में 'स्वाहा' बोलना चाहिए। जिस मन्त्र का जाप किया जाता है उस मन्त्र की जाप संख्या से दशवाँ अंश उस मन्त्र की होम में आहुतियाँ दी जाती हैं।
जपमाला
जाप की संख्या बताने के लिए सीधा सरल उपाय है माला। यह सूत्र, चन्दन, मूंगे, स्फटिक, स्वर्ण, पुत्रजीवमणि, मोती आदि की हो सकती है। माला साफ सुथरी अवश्य हो। प्रायः माला दाहिने हाथ के अंगूठे पर रखकर मध्यमा-अनामिका अँगुलियों से फेरते हैं। हाथ हृदय के सामने रखा जाता है। माला नाभि के अधिक नीचे तक न लटके। घुटने, पाँव या पलोटी पर रखकर माला नहीं फेरना चाहिए। ___ शान्तिक पौष्टिक (शुभ) कार्य के लिए स्फटिक माला दाहिने हाथ की मध्यमा अंगुली से फेरने का निर्देश है। वश्य-आकर्षण के लिए मूंगा (प्रवाल) की माला, बाएँ हाथ से। वश्य में अनामिका और आकर्षण में कनिष्ठिका अंगुली प्रयोग की जाती है। स्तम्भन के लिए स्वर्ण की माला दाहिने हाथ की कनिष्ठिका से और विद्वेषण, उच्चाटन, अभिचार कार्य के लिए पुत्रजीवमणि (काली) माला दाहिने हाथ की तर्जनी अँगली से जपने का निर्देश है।
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