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१०२ है, पृथ्वी के निरर्थक खोदने से उनके टने की सम्भावना हो सकती है और साथ ही पृथ्वी के भीतर रहने वाले जीवों के वध की भी जिम्मेदारी हमारे सिर पर आ जाती है।
जैनधर्म के अनुसार पृथ्वी सजीव है, सशरीरी है- संति पाणा पुढो सिया (आचा०, १.१६)। सर्वाथसिद्धि (२.१३) में पृथ्वी के चार भेद बताए गए हैं- पृथ्वी, पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकाय और पृथ्वीजीव। मूलाचार (गाथा २०६-०९) में पृथ्वी के ३६ भेद बताये गये हैं-मिट्टी, बालू, पत्थर, लोहा, तांबा, सीसा, चांदी, सोना, हीरा, मणि आदि। इन सभी के बारे में जैन साहित्य में काफी सामग्री भरी पड़ी हुई है। जैनधर्म में पृथ्वीकाय की ही हिंसा वर्जित है। यदि व्यक्ति इस हिंसा से विरत होता है तो खनन
आदि के कारण जो पर्यावरण प्रदूषण या आपत्तियों की सम्भावना बढ़ती है वह कम हो सकती है।
इसी तरह जलकायिक जीव होते हैं जिनकी हिंसा न करने के लिए हमें सावधान किया गया है। क्षेत्रीय आधार पर जल में कीड़े उत्पन्न होने को तो सभी ने स्वीकार किया है पर जल के रूप में उत्पन्न होने वाले जीवों की स्वीकृति जैन दर्शन में ही दिखाई देती है इसलिए उत्सेचन (कुँए से जल निकालना), गालन (जल छानना), धोवन (जल से उपकरण आदि धोना) जैसी क्रियाओं को जलकाय के शस्त्र के रूप में निर्दिष्ट किया है। ऐसी हिंसा व्यक्ति के अहित के लिए होती है, अबोधि के लिए होती हैं (तं से अहिताए, तं से अबोहीए)। इसीलिए जैनधर्म में जल गालन और प्रासुक जलसेवन को बहुत महत्त्व दिया गया है। साथ ही यह भी निर्देश दिया गया है कि जो पानी जहाँ से ले आयें, उसकी बिलछावनी धीरे से उसी में छोड़नी चाहिए ताकि उसके जीवन मर सकें। “पानी पीजे छानकर, गुरु कीजे जानकर" कहावत स्वच्छ पानी के उपयोग का आग्रह करती है।
प्रज्ञापना (११.२१-२८, तथा ८.७) में जल कायिक जीवों के दो भेद निर्दिष्ट हैं- सूक्ष्म और वादर। ओस, हिम, ओले, शुद्धोदक, शीतोदक, क्षारोदक आदि बादर जल कायिक जीव हैं जो पृथ्वी के नीचे कुएं नदी, सरोवर आदि में रहते हैं। इन जल प्रकारों में औषधियाँ भी मिली रहती हैं जो स्वास्थ्य के लिए हितकर होती हैं। यदि जल प्रदूषित हुआ तो उसका प्रभाव व्यक्ति के स्वास्थ्य पर निश्चित ही पड़ने वाला है। अनर्थदण्ड नामक व्रतपालन के माध्यम से साधक जल को प्रदूषित होने से तथा उसे अनावश्यक बहाने से बचाता है। दूषित पानी निश्चित ही हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पीलिया और पोलियो जैसे वायरस रोग, दस्त, हैजा, टाइफाइड जैसे बैक्टिरिया रोग और सूक्ष्म जीवों व कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोग दूषित-प्रदूषित जल के उपयोग से ही होते हैं। एक बूंद पानी में हजारों जीव रहते हैं यह भी एक वैज्ञानिक तथ्य है। इसलिए व्यर्थ पानी बहाना भी अनर्थ दण्ड में गिना जाता है। आज के प्रदूषित पर्यावरण में नदियों और समुद्रों का जल भी उपयोगिता की दृष्टि से समुद्री जीवों का
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