Book Title: Sramana 2000 01
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 121
________________ ११२ है। इच्छाओं का उदात्तीकरण, सहानुभति का विस्तृतिकरण, सुख-दुःख का साधारणीकरण जब तक नहीं होगा, व्यक्ति और समाज का निर्माण नहीं हो सकता। भेद-भाव की वीभत्स दीवारों को भेद कर प्रेम का विस्तार करना नितान्त आवश्यक है। ___ हर धर्म आदर्श परिवार की संकल्पना प्रस्तुत करता है। पारिवारिक सदस्यों के बीच किस प्रकार सौहार्द बना रहे, उनका यथोचित सम्मान करते हुए कैसे उनकी सेवा की जा सके, परिवार के बाहरी जगत् को समरसता में बाँधकर कैसे वैयक्तिक परिवार की संकल्पना को सफल किया जाये, ये यक्ष प्रश्न आज प्रत्येक अध्येता और चिन्तक के मन में कौंध रहे हैं। धर्म प्रवृत्तिमूलक है या निवृत्तिमूलक, पर उसका लक्ष्य यथार्थ सुख की प्राप्ति कराना तो रहा ही है। फलतः प्रवृत्ति और निवृत्ति के बीच समन्वय स्थापित करते हए निःस्वार्थता, अनासक्ति, व्यापकता और यथार्थता के आधार पर परिवार में सुखद और समरस वातावरण बनाया जा सकता है। सार्वलौकिकता, सामुदायिकता, नैतिकता और सापेक्षता के सिद्धान्त, चिन्तन में अनेकान्त और अभिव्यक्ति में स्याद्वाद का आधार बनाते हैं, सत्-असत् का विवेक पैदा करते हैं, निरपेक्षता को बढ़ाते हैं और पारस्परिक सद्भाव, संयम और सहयोग के आधार पर "परस्परोपग्रहो जीवानाम्' का पाठ पढ़ाते हैं। यही पाठ आत्मज्ञान का जनक है और आत्मज्ञान ही जीवन का लक्ष्य है। वैयक्तिक और सामुदायिक हित इसी आत्मज्ञान में सनिहित हैं। हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति के सभी अध्याय इसी आत्मज्ञान और आध्यात्मिकता के अन्तर्गत हैं। उनमें अनेकता में एकता के स्वर गुंजित होते हैं। चाहे वह धर्म हो या दर्शन, कला हो या विज्ञान, सभी क्षेत्रों में प्राचीन आचार्यों ने स्वानुभूति के आधार पर एक आदर्श परिवार की संकल्पना की है और समूची संस्कृति को प्राणमय बनाया है। चेतना को जागृत कर मानव के व्यक्तिगत और सामाजिक रूप को परिष्कृत कर सम्पूर्ण मानव जाति को एक ही जाति की परिकल्पना देने में उनका योगदान अविस्मरणीय है। वैदिक, जैन, बौद्ध आदि सभी दार्शनिकों ने अपने-अपने ढंग से आदर्श परिवार की संकल्पना को प्रस्तुत किया है। पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन, श्वसुर-श्वसृ, सास-बहू आदि जैसे परिजनों के साथ कैसा व्यवहार किया जाये, पड़ोसी बन्धुजनों एवं अतिथियों से कैसे स्नेह सम्बन्ध रखा जाये इसका समुचित समाधान सभी धर्म ग्रन्थों में मिलता है। इसी तरह अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का परिपालन करते हुए सप्त व्यवसनों से दूर रहकर परिवार के सुख-समृद्धि को दृष्टिगत करने का पथ वैदिक ऋषियों, मुनियों तथा ऋषभ, पार्श्वनाथ, महावीर आदि तीर्थङ्करों एवं महात्मा बुद्ध के उपदेशों मे प्रशस्त हुआ है। भारत वसुन्धरा के बाह्यवर्ती इस्लाम, ईसाई आदि संस्कृतियों में भी लगभग इन्हीं सिद्धान्तों का परिपोषण मिलता है। वस्तुत: आदर्श परिवार की संकल्पना के पीछे व्यक्ति और समष्टिगत समग्र कल्याण का भाव निहित रहता है। व्यक्ति समाज का सदस्य है। उसे धन, सम्पत्ति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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