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इसी तरह मन्त्र पढ़कर मन्त्र में आये 'पूर्व द्वार' के स्थान पर क्रमश: आग्नेयद्वारं, दक्षिणद्वारं, नैऋत्यद्वारं, पश्चिमद्वारं, वायव्यद्वार, उत्तरद्वारं, ईशानद्वारं, अधोद्वारं, ऊर्ध्वद्वारं, वक्रं और सर्वग्रहान् बोलते हुए तत्तद् दिशा में सरसों क्षेपित किया जाता है। पूर्व और दक्षिण के बीच का कोना आग्नेय दिशा, दक्षिण और पश्चिम का कोना नैऋत्य दिशा, पश्चिम और उत्तर के बीच का कोना ईशान दिशा कहलाती है। इस प्रकार सकलीकरण करके फिर पंचोपचार विधि से यन्त्र की पूजा करना चाहिए। पाँच उपचार
मन्त्र स्वामी देवता के पाँच उपचार हैं- आह्वानन, स्थापन, साक्षात्करण, अष्टद्रव्य से पूजन और विसर्जन। आह्वानन मन्त्र के साथ अत्र अवतर अवतर बोलते समय पहले दोनों हाथों को हृदय के सामने करके जोड़े, फिर दोनों हाथों की अनामिका (छोटी ऊंगली के पास की) उंगली की जड़ (हथेली तरफ से पहले पोरुए) पर अंगूठा रखें, सीधे हाथ करके हृदय के सामने आगे को करके फैलाते जाएँ, पूर्ण फैलाते हुए अवतर बोलें। स्थापन के लिए पुन: हाथ मुकुलित, तर्जनी की जड़ पर अङ्गुष्ठ, इस बार हाथ उल्टे अर्थात् हथेली नीचे की ओर, हृदय के समानान्तर आगे को हाथ फैलाते हुए 'ठः ठः' बोलें। साक्षात्करण के लिए हृदय के सामने कुछ दूर हाथ जोड़ें, फिर दोनों मुट्ठियाँ बाँधे, अङ्गुष्ठ बाहर निकले रहने दें, 'संवौषट्', या 'वषट्' बोलते हुए मुट्ठी बँधे हुए हाथों के दोनों अँगूठे हृदय से लगाएँ। विसर्जन करते समय 'स्व स्थानं गच्छ गच्छ ज: ज: जः' अवश्य बोलना चाहिए। आह्वानन पूरक योग से, विसर्जन रेचक योग से और शेष कर्म कुम्भक योग से करना चाहिए। पूरक में श्वाँस अन्दर खींची जाती है, रेचक में श्वाँस बाहर छोड़ी जाती है और कुम्भक में श्वाँस अन्दर रोकी जाती है।
जप, होम
__मन्त्र के जप की संख्या सामान्य रीति से १०८ अथवा १००८ कही गयी है, किन्तु मन्त्र विशेषों की संख्या उद्देश्य के अनुसार अलग-अलग भी कही गई है।
जप तीन प्रकार से किया जाता है— प्रथम मानस जप, दूसरा उपांशु जप और तीसरा भाष्य जप। जो जप मन ही मन में किया जाता है उसे मानस जप कहते हैं। उपांशु जप उसे कहते हैं अन्तर्जल्परूप हो और जिसे कोई सुन न सके। इसमें मन्त्र के शब्द मुख से बाहर नहीं निकलते, कण्ठ स्थान में ही गूंजते रहते हैं। इन तीनों में सबसे उत्तम मानस जप है, मानस जप से नीचे उपांशु जप है और उपांशु जप से निकृष्ट भाष्य जप है। मन्त्र को मुँह से बोलते हुए जपने को भाष्य कहते हैं।
प्रारम्भ में भाष्य जप किया जाता है, मन्त्रों को मुख से बोलकर जपने से साधक
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