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है। जैन दर्शन भी सर्व शब्द से अपनी परम्परा में प्रसिद्ध सपर्याय षड् द्रव्यों को पूर्णरूपेण लेता है। इस तरह उपर्युक्त सभी दर्शन अपनी परम्परा के अनुसार माने जाने वाले सब पदार्थों को लेकर उनका पूर्ण साक्षात्कार मानते हैं और तद्नुसारी लक्षण भी करते हैं । ७४ सर्वज्ञ सम्बन्धी इस मान्यता में अन्य दर्शनों का जैन दर्शन से मतवैभिन्यता का होना स्वाभाविक है, क्योंकि अन्य दर्शनों में जैनदर्शन की भाँति ज्ञान को आत्मा का स्वभाव नहीं माना गया है । केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव है और स्वभाव होने के कारण ही केवलज्ञान मुक्तावस्था में भी विद्यमान रहता है। जैन दर्शन को छोड़कर अन्य किसी दर्शन को ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, स्वीकृत नहीं है । वस्तुतः मतवैभिन्यता का मुख्य कारण यही है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में ज्ञानमीमांसा का जितना विशद् विवेचन उपलब्ध होता है उतना शायद ही किसी अन्य दर्शन में हो। जैन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें ज्ञानमीमांसा को प्रमाणमीमांसा से सर्वथा भिन्न रखा गया है। प्राचीन आगमों में प्रमाण की अपेक्षा ज्ञान का ही वर्णन अधिक व्यापकता से किया गया है | पञ्चज्ञान की चर्चा जैन परम्परा में भगवान् महावीर से भी पहले थी, यह राजप्रश्नीयसूत्र से प्रमाणित होता है। इसी प्रकार कर्मशास्त्र में ज्ञानावरणीय कर्म के जो उल्लेख हैं उनसे भी यह फलित होता है कि पञ्चज्ञान की चर्चा भगवान् महावीर से पूर्व की है। इन पञ्चज्ञानों कोही आधार बनाकर उमास्वाति ने मति और श्रुत को परोक्ष तथा अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष माना है ।
विस्तार भय से प्रस्तुत निबन्ध को यही विराम देते हैं। यद्यपि ज्ञानमीमांसा से सम्बन्धित अभी ऐसे अनेक पहलू हैं जिसे अभी इसमें समाहित नहीं किया गया है।
पादटिप्पणी
१.
२.
३.
४.
५.
८.
आयारो, जैन विश्वभारती, लाडनूं, १९८१, ५/१०४. ज्ञानाद् भिन्नो न चा भिन्नो, भिन्नाभिन्नः कथंचन ।
ज्ञानं पूर्वापरीभूतं, सोयमात्मेति कीर्तितः । । स्वरूप सम्बोधन, ३.
णाणे पुण नियमं आया । भगवतीसूत्र, १२ / १०.
मानविकी पारिभाषिक कोश, सम्पा०- डॉ० नगेन्द्र, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली १९६५, पृ०-७५.
वही, ६. वही, ७. वही
णाती गाणं - अवबोहमेतं, भावसाधनो | अहवा णज्जइ
अणेणेति नाणं, खयोवसमियखाइएण वा भावेण जीवादिपदत्थ ।
णज्जंति इति णाणं, करणसाधणो । अहवा णज्जति एतम्हि त्ति
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