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अहिंसा एवं तितिक्षा- भगवान् ने पल-पल अनुपम अहिंसा और तितिक्षा की साधना की। भिक्षा में जाते हुए अगर कबूतर आदि पक्षी अनाज चुगते दिखाई देते तो वर्द्धमान दूर हट जाते ताकि उनको विघ्न न पहुँचे। यदि वे किसी घर के बाहर किसी ब्राह्मण, श्रमण या भिक्षुक को याचना करते देखते, तो उस घर में नहीं जाते थे ताकि उनकी आजीविका में बाधा पहुँचे। किसी के मन में द्वेष-भाव उत्पन्न होने का वे अवसर ही नहीं देते थे।
दुर्गम विहार-चर्या- भगवान् ने दुर्गम लाढ़ देश की वज्रभूमि और शुभ्र भूमि दोनों में विहार किया। वहाँ उन पर अनेक विपदाएँ आयीं। वहाँ के लोग उन्हें ताड़ित करते-पीटते। उन्हें खाने को रूखा-सूखा आहार मिलता। कुत्ते उन्हें चारों ओर से घेर लेते तथा कष्ट देते। उन अवसरों पर ऐसे लोग विरले ही होते, जो कुत्तों से उनकी रक्षा करते। अधिकांश तो उल्टे भगवान् को ही पीटते तथा ऊपर से कुत्ते लगा देते। ऐसे अवसरों पर भी अन्य साधुओं की तरह उन्होंने दण्ड-प्रयोग नहीं किया। दुष्ट लोगों के दुर्वचनों को उन्होंने क्षमा भाव से सहन किया।
__ अनुपम चिन्तन, अनुपम तप, अनुपम ध्यान, तितिक्षा, धैर्य आदि के साथ महावीर ने अपना साढ़े बारह वर्षों का साधना-काल व्यतीत किया। उनकी उग्र तपस्या तथा कष्ट-सहिष्णुता के कारण ही लोगों ने उन्हें श्रमण महावीर कहना प्रारम्भ किया।
साधना काल के उपसर्ग- श्रमण वर्द्धमान ने अपने दीर्घ साधना-काल में सारा समय आत्म- चिन्तन तथा आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के उद्यम में बिताया। उन्होंने इस साधना काल में उपदेश नहीं दिया, धर्म-प्रचार नहीं किया, न शिष्य मुण्डित किये तथा न ही उपासक बनाये। उन्होंने ध्यान की अतल गहराइयों में डूबकर जगत् और जीवन के प्रत्येक प्रश्न पर गम्भीरता से चिन्तन किया।
वर्द्धमान अपने युग के सर्वोत्कृष्ट प्रतिभाशाली एवं मेधावी पुरुष थे। यह उनकी दीर्घ साधना का ही फल था। शास्त्रों में उन्हें मेधावी (मेहावी), आशुप्रज्ञ (आसुपने) तथा दीर्घप्रज्ञा (दीहपन्ने) बार-बार कहा गया है। उनके नाम के साथ निम्न विशेषण भी मिलते हैं :
दक्खे - वे बड़े दक्ष व व्यवहार-कुशल थे। दक्खपइण्णे - वे संकल्प एवं प्रतिज्ञा में दृढ़ थे। भद्दये - वे सरल-भद्र प्रकृति वाले थे। विणीये - वे विनीत थे।
तीर्थङ्कर स्वयंसम्बुद्ध होते हैं। वे अपने स्वयं के पुरुषार्थ से आत्म-ज्ञान प्राप्त करते हैं। तीर्थङ्कर महावीर के भी किसी महान् सत्पुरुष से प्रत्यक्ष साक्षात्कार की कोई
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