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अपनी स्थिति से, अपनी नासाग्र दृष्टि से तिल भर भी डिगे नहीं। आखिर दुष्ट संगम का अहंकार चूर हुआ और उसने महावीर से क्षमा मांगी। प्रातःकाल महावीर की ध्यान साधना पूर्ण हुई और वे प्रसन्न मन से आगे विहार को बढ़े (आवश्यकनियुक्ति-गाथा ३९२)।
कानों में कील-साधना-काल के तेरहवें वर्ष में श्रमण महावीर छम्माणि गांव के बाहर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े थे। उसी समय खेतों में काम करता हुआ एक ग्वाला वहाँ अपने बैल लेकर आया। श्रमण को देखकर बोला--- "देव! जरा मेरे बैलों की देखभाल करना, मैं थोड़ी देर में आता हूँ। यह कहकर वह वहाँ से गाँव चला गया।
थोड़ी देर में वह वापस आया तो उसे बैल नहीं मिले। वे चरते-चरते कहीं दूर निकल गए थे। उसने महावीर से पूछा- “देव! मेरे बैल कहाँ गये?'' महावीर तो मौन-ध्यान में तल्लीन थे। उत्तर कहाँ से देते। इस पर वह ग्वाला आग बबूला हो गया। उसने फिर पूछा- 'ऐ ढोंगी बाबा! तुझे कुछ सुनाई देता है या नहीं?" महावीर ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने कहा- “अच्छा, मैं तेरे कानों की चिकित्सा करता हूँ।" आवेश में मूढ़ ग्वाला जंगल में गया और वहाँ से किसी वृक्ष की दो पैनी लकड़ियाँ ली और महावीर के कानों में ठोंक दी। उन्हें असह्य मरणान्तिक वेदना हई पर उन्होंने उफ तक नहीं किया। वे महाश्रमण तब भी ध्यान से तनिक भी विचलित नहीं हुए।
कायोत्सर्ग पर्ण होने पर वे अमध्यमा नगरी पधारे तथा सिद्धार्थ वणिक के घर गोचरी ली। वणिक ने उनके कानों में कीलों को देखा तो वह दुःख से काँप उठा। उसने तुरन्त खरक नामक वैद्य को बुलाया। उसने कानों से कीलें निकाली। भगवान् को असह्य वेदना हुई। उनके मुख से एक भयंकर चीख निकल गई। खरक ने कानों में औषधि एवं तेल का मर्दन किया, जिससे उनके घाव कुछ दिनों में भर गए। ___ साधक जीवन की यह मानो अन्तिम वेदना थी, अन्तिम कड़ी थी, जो अब समाप्त हो गई (त्रिषष्टि०, २०/४)।
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