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प्रकार संज्ञी पञ्चेन्द्रिय भव्य जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर अर्ध-पुद्गल परावर्तनकालपर्यन्त शेष संसार में घूमता रहता है। करणलब्धि
अपुव्वकरण मुग्गर,घाय विहिय दुट्ठ गंठी भेउसो।
अंतमुहुत्तेण गउ, अनिविट्टिकरणे विसुझंतो।।६।। भव्य जीव अपूर्वकरणरूपी मुद्गर से घातियाँ कर्मों की दुष्ट ग्रन्थि का भेदन कर अन्तर्मुहूर्त में ही अनिवृत्तिकरण द्वारा परिणामों की निर्मलता को प्राप्त करता है।
सो तत्थ करणे सुहउव्व, वरिजय जणिय परम आणंदं। सम्मत्त लहइ जीउ, सामनेणं तुहप्पसाया।।७।।
हे भगवान्! आपके प्रसाद से आपकी आज्ञानुसार आचरण (चारित्र का पालन) करने पर जीव कर्मरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्तकर परम आनन्द को पाता है तथा सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। सम्यक्त्व के भेद
तं चेगविहं दुविहं तिविहं तह चउव्विहं च पंच विहं।
तत्थेगविहं जं तुह पणीय भावेसु तत्त रुई।।८।। वह (सम्यक्त्व) एक, दो, तीन, चार एवं पाँच प्रकार का है। इनमें से सम्यक्त्व सामान्य से एक है, जिसमें आपके (जिनेन्द्रदेव) द्वारा प्रणीत तत्त्वों (पदार्थों) में जिस-जिस रूप से रुचि (श्रद्धान) होती है, वह उतने प्रकार है।
सम्यक्त्व के दो भेद
दुविहं तु दव्व भावाउ, निच्छय-व्यवहारउ य अहवादि। निस्सग्गुवएसाउ, तुह वयण विउहि निद्दिटुं।।९।।
हे भगवान्! आपके कथनानुसार विद्वानों ने सम्यक्त्व के दो भेद निर्दिष्ट किये हैं- द्रव्य सम्यक्त्व एवं भाव सम्यक्त्व अथवा निश्चय और व्यवहार रूप सम्यक्त्व अथवा निसर्ग एवं (पर) उपदेश
द्रव्य एवं भाव सम्यक्त्वतुह वयणे तत्तरुई, परमत्थमजाणओ वि दव्य गये। सम्मभाव गय पुण, परमत्थ वियाणउ होई।।१०।।
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