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जिनतिलकसूरि (वि०सं० १५०८/ई०स० १४५२ में सिन्दूरप्रकरवृत्ति के
रचनाकार)
वाग्भट्टालंकारटीका की वि०सं० १४८६ में प्रतिलिपि की गयी एक प्रति में टीकाकार राजहंस का उल्लेख करते हुए उन्हें खरतरगच्छीय जिनतिलकसूरि शिष्य बतलाया गया है । १६
वि०सं० १५०५/ई०स० १४४९ में जीवप्रबोधप्रकरणभाषा के रचनाकार विद्याकीर्ति भी जिनतिलकसूरि के ही शिष्य थे। १७ जिनतिलकसूरि के पट्टधर जिनराजसूरि हुए। इनके द्वारा वि० सं० १५६२ में प्रतिष्ठापित पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है । वर्तमान में यह प्रतिमा रामघाट, वाराणसी स्थित एक जिनालय में संरक्षित है। श्री पूरनचन्द नाहर ने इस लेख की वाचना दी है, जो इस प्रकार है :
सं० १५६२ वर्षे वैशाख सु०१० रवौ श्रीपाल मउवीया गोत्रे सा० परसंताने सा० पहराज पुत्र सा० ईसरेण भा० • तिलकू पु० त्रिपुर दास युतेन पार्श्वनाथबिंबं स्वपुण्यार्थं कारितं। प्र० श्री खरतरगच्छे श्रीजिनतिलकसूरि प० श्री जिनराजसूरि पट्टे श्रीभिः ।।
इस लेख में जिनराजसूरि के गुरु जिनतिलकसूरि का भी नाम मिलता है। इस प्रकार जिनतिलकसूरि के तीन शिष्यों जिनराजसूरि, राजहंस और विद्याकीर्ति का उल्लेख प्राप्त होता है और जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं जिनराजसूरि अपने गुरु के पट्टधर बने ।
जिनराजसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि हुए, जिनके द्वारा प्रतिष्ठापित दो जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। ये वि०सं० १५६६ की हैं। इनमें से एक लेख धर्मनाथ पंचतीर्थी प्रतिमा पर उत्कीर्ण है। यह प्रतिमा कोटा (राजस्थान) स्थित माणिकसागरजी के मन्दिर में संरक्षित है। श्री विनय सागरजी ने इसकी वाचना निम्नानुसार दी है : १९ संवत् १५६६ वर्षे ज्येष्ठ शुक्ल पंचम्यां । श्रीमालान्वये महतागोत्रे सा० हाहा - तस्य भार्या हीरा तयोः पुत्र । सकतन साध्वेति । तस्य भार्या । तेनेदं धर्मनाथबिंबं कारापितं श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनराजसूरिपट्टे श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः प्रतिष्ठितं।
द्वितीय लेख पार्श्वनाथ की धातुप्रतिमा पर उत्कीर्ण है । श्रीपूरनचन्द्र नाहर ने इसकी वाचना दी है, २० जो इस प्रकार है :
सं० १५६६ वर्षे ज्येष्ठ शुक्ल नवम्यां श्रीमालवंशे महता गोत्रे सा० हाल्हा तस्य पुत्र सा० तकतनेनेदं पार्श्वनाथ बिंबं कारितं खरतरगच्छे श्रीजिनदत्त (?) सूरि अनुक्रमे श्रीजिनराजसूरिपट्टे श्रीजिनचन्द्रसूरिभिः प्रतिष्ठितं । ।
वि०सं० १४९७ के एक प्रतिमालेख में जिनराजसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि
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