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जिनहितसूरि
जिनसर्वसूरि
उपा० कल्याणराज
जिनचन्द्रसूरि
चारित्रवर्धन (रघुवंशशिष्यहितैषिणीवृत्ति के रचनाकार)
जिनसमुद्रसूरि जिनतिलकसूरि
जिनराजसूरि
मुनि पुण्यविजय के संग्रह में वि०सं० १५९६/ई०स० १५४० में लिखित प्रज्ञापनाटीका की एक प्रति संरक्षित है। १० इस प्रतिलिपि की प्रशस्ति १ में लिपिकार वाचक सहजकलश ने स्वयं को जिनप्रभसूरि की परम्परा का बतलाते हुए अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इसप्रकार है : जिनप्रभसूरि की परम्परा के जिनहितसूरि ।
उपा० आनन्दराज
अभयचन्द्रगणि
महो०हरिकलश
वाचक सहजकलश (वि.सं. १५९६ में प्रज्ञापनाटीका
के प्रतिलिपिकार) आबू स्थित विमलवसही से प्राप्त वि०सं० १५९७/ई०स० १५४१ के एक स्तम्भलेखरर में भी इसी प्रकार की गुर्वावली मिलती है, साथ ही इसमें मुनि सहजरत्न एवं उनके तीन शिष्यों- भक्तिलाभ, मतिलाभ और भावलाभ का श्रीमालगोत्रीय एक श्रावकपरिवार के साथ यहां तीर्थयात्रार्थ आने का उल्लेख है।
मुनि जयन्त विजयजी ने इस लेख की वाचना दी है, जो इस प्रकार है :
।।सं० (०) १५९७ वर्षे फागु (ल्गु) ण सुदि ५ श्रीखरतरगच्छे भ० श्रीजिनप्रभसूरियन्वए (र्यन्वये) उ० श्रीआनन्दराज सि० (शि०) उपा० श्रीअभयचन्द
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