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क्षण में कर्मप्रदेशों की असंख्यात गुणी निर्जरा करता हुआ अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान को प्राप्त होता है।
जैन परम्परा में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव- ये पञ्चपरावर्तन माने गये हैं। द्रव्य परावर्तन को पुद्गल परावर्तन भी कहते हैं। पुद्गल परावर्तन के आधे काल को अर्धपुद्गल-परावर्तन कहते हैं। यह जीव संसार में मिथ्यात्व परिणाम से अनन्त बार अनन्त परावर्तन करता है। जब इसका अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल बाकी रह जाता है तब ज्ञानी जानता है कि इसकी काललब्धि आ गयी है अर्थात् इसकी योग्यता सम्यक्त्व के उत्पन्न होने की हो गई है। जिस जीव को सम्यक्त्व हो जाता है, वह अन्तर्मुहूर्त से लेकर अर्धपुद्गल परावर्तन काल के भीतर किसी भी समय में अवश्य मुक्त हो जाता है। ___वस्तुत: जीव को इन पञ्चपरावर्तन के चक्कर में फंसकर अनन्तबार जन्म-मरण को प्राप्त होना पड़ता है; किन्तु जिस जीव से मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ- इन सात प्रकृतियों का विनाश हो जाता है, अर्थात् जिन्हें क्षायिक सम्यक्त्व का प्रकाश हो गया, वे ही जीव इस पञ्चपरावर्तनों के भ्रमण से मुक्त हो पाते हैं।
इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में संक्षेप में सम्यक्त्व का जो विवेचन प्रस्तुत किया गया है, वह दिगम्बर एवं श्वेताम्बर- दोनों ही परम्पराओं के एतद्विषयक अनेक सैद्धान्तिक आगम और आगमोत्तर अन्य ग्रन्थों में विस्तार से देखने को मिलता है। अत: विशेष विवेचन एवं भेद-प्रभेदों की व्याख्या उन ग्रन्थों में देखी जा सकती है।
- प्रस्तुत भूमिका के लेखन और इस लघु ग्रन्थ के सम्पादन में मुझे विभिन्न ग्रन्थों, लेखों व शब्दकोशों से असीम सहायता प्राप्त हुई है जिनके लेखकों के प्रति मैं हृदय से आभारी हूँ।
सम्पादिका
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