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हेमचन्द्राचार्य का “अर्हन्नाम सहस्रसमुच्चय” तो ऐसा लगता है जैसे जिनसेन के जिनसहस्रनाम की काफी अंशों में पुनरावृत्ति हो।
इसी तरह महाभारत के अनुशासनपर्व के सत्रहवें अध्याय में आये जिनसहस्रनाम स्तोत्र में से भी कुछ ऐसे नाम प्रस्तुत किये जा सकते हैं जो दोनों परम्पराओं में समान रूप से प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरणार्थ स्वयम्भुव, सहस्राक्ष, ईश्वर, पितामह, प्रवर, स्थिर, वरद, सर्वात्मा, सर्वकर, तपस्वी, महारूप, वृषरूप, महायशाः, महाकाय, सर्वभूतात्मा, अनघ, विश्वरूप, विशालाक्षा, महातपः, घोरतपः, परमतपः, योगी, सर्वज्ञ, दिग्वासा, मन्त्रवित्, रुद्र, गणपति, महातेज, प्रजापति, विश्वबाहु, सर्वग, आदित्य, हिरण्यगर्भ, मुनि, सिद्धसाधक, महासेन, हरि, ब्रह्मा, पशुपति, शुद्धात्मा, शंकर, महामुनि, कनकः, कांचनछवि, महात्मा, शुचि, देव, अदीति, सुहद, महादेवाः, अजितः, शिव, विभुः, महागर्भः, पुराण, देवदेव:, सिद्धार्थ, हिरण्यबाहु, जितकामा, जितेन्द्रिय, महाबलः, तपोनिधि, पण्डित, त्रिलोचन, सर्वलोचना, महागर्भ, ब्रह्मवित्, ब्राह्मण, नैकात्मा, उमापति, परमात्मा, अचिन्त्य, नीरज, विरज, त्रिविक्रम, निरामयः, विश्वदेवा आदि।
ऐसा लगता है, जिनसेन के सामने, महाभारत रहा होगा। वे मूलरूप से प्रारम्भ में उसी परम्परा के अनुयायी विद्वान् थे, इसलिए महाभारत से परिचित होना भी स्वाभाविक है। उल्लेखनीय यह है कि जिनसेन ने महाभारत और समची वैदिक परम्परा में शिव के लिए प्रयुक्त ऐसे नामों को तीर्थङ्कर जिन से जोड़ा है जिनकी व्याख्या जैन संस्कृति के अनुकूल की जा सकती है। कुछ व्याख्यायें तो इतनी मनोरम है कि जिनसेन की प्रगल्भ विद्वत्ता का परिचय मिलता है। उदाहरणार्थ, स्वयम्भू का अर्थ देखिए जिसमें उन्होंने लिखा है कि हे नाथ, आप अपने ही आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा को उत्पन्न कर प्रकट हुए हैं, इसलिए आप स्वयंभू कहलाते हैं (२५.६६)। अष्ट कर्म रूपी शत्रुओं में से आप आधे अर्थात् चार घातिया कर्म रूपी शत्रुओं के ईश्वर नहीं हैं इसलिए आप अर्धनारीश्वर कहलाते हैं (२५.७३)। आप शिवपद अर्थात् मोक्ष स्थान में निवास करते हैं इसलिए शिव कहलाते हैं। पापरूपी शत्रुओं का नाश करने वाले हैं इसलिए हर कहलाते हैं, लोक में शान्ति करने वाले हैं, इसलिए 'शंकर कहलाते हैं। जगत् में श्रेष्ठ हैं इसलिए 'वृषभ' कहलाते हैं (७३-७५ । समस्त जनसमूह के रक्षक होने से आप प्रजापति हैं (१२४)। जब आप गर्भ में थे तभी पृथ्वी स्वर्णमय हो गयी थी और आकाश से देवों ने भी स्वर्ण की दृष्टि की थी इसलिए आप हिरण्यगर्भ कहलाते हैं। इसी तरह महेश्वर, महादेव, दिग्वासा, वातरशना आदि शब्दों की भी व्याख्या द्रष्टव्य है।
जैसा पहले स्पष्ट किया जा चुका है, जैनाचार्य समन्वयवाद के पुरोधा थे उन्होंने वैदिक और बौद्ध संस्कृति से अनुकूल शब्दों को ग्रहण किया और उनकी व्याख्या जैन संस्कृति के ढांचे में की। आचार्य जिनसेन ने भी उत्तराध्ययन आदि की शैली का उपयोग किया और शिववाचक शब्दों को जैन तीर्थङ्करों के साथ बैठा दिया। यह प्रवृत्ति
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