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२२ से २५ गाथाओं के अतिरिक्त शेष सभी गाथाओं में उनके कुछ विशिष्ट शब्दों के टिप्पण पुरानी गुजराती में लिखे गये हैं, परन्तु ये टिप्पण गाथाओं की पंक्तियों के बीचोंबीच छूटी अन्तर वाली बहुत ही संकीर्ण जगह में अतिसूक्ष्म एवं अस्पष्ट अक्षरों में लिखे होने से अत्यन्त कठिनाई से पढ़ने में आते हैं। मैंने इसका उपयोग अनुवाद में किया है। अन्तिम चार गाथाओं के टिप्पण लेखक या लिपिकार ने नहीं दिये हैं। पुरानी गुजराती में लिखित इन टिप्पणों की महत्ता को देखते हुए इन्हें इस लघु ग्रन्थ के साथ संयोजित करते हुए अन्त में गाथाक्रम से प्रस्तुत किया गया है।
गाथाओं वाली प्रत्येक पंक्ति में लगभग १६-१८ शब्द हैं; लिपि अस्पष्ट और वर्ण घने रूप में लिखे गये हैं। 'श्रीपार्श्वनाथाय नमः' लिखने के साथ ग्रन्थ रचना प्रारम्भ की गई है। पच्चीस गाथाओं के बाद ग्रन्थ समाप्ति सूचक पुष्पिका इस प्रकार मिलती है- इतिश्री सम्यक्त्व पच्चीसी सम्पूर्णम्। लिख्यत्तं जेट्ठी अविगत ३ संवत् १७९६ वर्षे आशो(ज)मासे कृष्णपक्षे तिथौ ७, आदित्यवार (रविवार) अकबराबाद स्थाने लिप्यकृतं।
यहाँ पर संवत्,मास,पक्ष, तिथि, वार,स्थान इत्यादि स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं, परन्तु लेखक का नाम अस्पष्ट है। "लिख्यत्तं जेट्ठी" से यह अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है कि सम्यक्त्व पच्चीसी का लेखक अथवा लिपिकार कदाचित् जेट्ठी नामक व्यक्ति रहा होगा।
प्रस्तुत लघु ग्रन्थ में सम्यक्त्व का विवेचन सार संक्षेप में होते हुए भी गूढ़ अर्थों और भेद-प्रभेदों से परिपूर्ण है। इसमें आये समागत सम्यक्त्व के भेद-प्रभेदों की गणना का तथा एक-दो और भी प्रसङ्गों पर दो-तीन गाथाओं का अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं हो सका, अत: इसकी पूर्ति की भी विद्वानों से अपेक्षा है। ____ इस ग्रन्थ की भाषा में विभिन्न प्राकृतों के साथ अपभ्रंश भाषा का प्रभाव भी काफी स्पष्ट है। भाषागत दृष्टि से यह कृति प्राचीन प्रतीत होती है। प्रस्तुत कृति के विषय विवेचन से भी स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ के रचनाकार द्रव्यानुयोग के गहन अध्येता थे, जिन्हें दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों ही जैन परम्पराओं के आगमिक ग्रन्थों का अच्छा ज्ञान था। प्रतिपाद्य विषय
सम्यग्दर्शन मोक्ष प्राप्ति का मूल साधक गुण है। आचार्य उमास्वामी ने मोक्षमार्ग के साधन रूप रत्नत्रय में इसको प्रथम स्थान देते हुए लिखा है- 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।' दूसरे सूत्र में सम्यग्दर्शन की परिभाषा करते हुए कहा है- “तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।" तत्त्वों पर अटल श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने स्वानुभूति को सम्यक्त्व कहा है तथा वे कहते हैं- “दंसण भट्ठा भट्टा दंसण भट्टस्स
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