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३-४थी शताब्दी ही मानते हैं,१६ जो आर्यरक्षित और उमास्वाति का काल माना जाता है। उमास्वाति ने पञ्चज्ञान को ही दो प्रमाणों में विभक्त किया है। १७ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान को परोक्ष तथा अवधिज्ञान, मनापर्यवज्ञान और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष बतलाया है। प्रमाण को दो भागों में विभक्त कर उनका पञ्चज्ञान के साथ सम्बन्ध जोड़ना जैन दर्शन में उमास्वाति द्वारा किया गया नया मोड़ है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी प्रवचनसार में प्रमाण के दो विभाग किये हैं, किन्तु प्रमाण की कोई चर्चा नहीं की है। १७ _आगमों में प्राप्त तथ्यों से भी यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान के पाँच प्रकार ही पूर्ववर्ती हैं। पञ्चज्ञान की चर्चा राजप्रश्नीय में भी हुई है। उसमें श्रमण केशीकुमार के मुख से कहलवाया गया है कि हम श्रमणों के ग्रन्थों में ज्ञान निश्चय ही पाँच प्रकार के बतलाये गये हैं- आभिनिबोधिक ज्ञान (मतिज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान। १८ इन पाँच ज्ञानों में से आभिनिबोधिक ज्ञान मुझे है, श्रुतज्ञान मुझे है, अवधिज्ञान मुझे है, मनःपर्यवज्ञान भी मुझे प्राप्त है, किन्तु केवलज्ञान प्राप्त नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान भगवन्त अरिहन्तों को होता है। १९ स्थानांगर और भगवती२१ में भी ज्ञान के पाँच प्रकारों का वर्णन है। तत्त्वार्थसूत्र में भी इन्हीं पाँच ज्ञानों का उल्लेख है। २२ किन्तु इनके विभाजन में अन्तर है। स्थानांगसूत्र के अनुसार विभाजन निम्नलिखित है
_ज्ञान
ज्ञान
___ प्रत्यक्ष
परोक्ष
केवल
नोकेवल
आभिनिबोधिक
श्रुत
भवस्थ सिद्ध
भवस्थ
सिद्ध
श्रुतनिःसृत
अश्रुनिःसृत
अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह
संयोगी भवस्थ अयोगिभवस्थ अनन्तरसिद्ध परम्परसिद्ध प्रथम समयसयोगिभवस्थ अप्रथम समयसयोगि भवस्थ प्रथम समय अयोगिभवस्थ अप्रथम अयोगिभवस्थ केवलज्ञान एक अनन्तर सिद्ध अनेक अनन्तरसिद्ध एक परम्पर अनेक परम्परसिद्ध ___अवधिज्ञान मन:पर्यवज्ञान अंगप्रविष्ट अंग बाह्य भवप्रत्ययिक क्षायोपशमिक
आवश्यक आवश्यकव्यतिरिक्त भवप्रत्ययिक क्षायोपशमिक कालिक उत्कालिक
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