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[२०] जन का चित्त स्वतः ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। ये पुण्यमूर्ति स्वरूप थे तथा अनेक पुराण ग्रन्थों के रचयिता थे।
... इसी तरह भट्टारक शुभचन्द्र ने सकलकीति को पुराण एवं काव्यों का प्रसिद्ध प्रणेता कहा है। इनके अतिरिक्त इनके बाद होने वाले हामी भट्टारकों ने सकलकोलि के व्यक्तित्व एवं विद्वत्ता की भारी प्रशंसा की है । ये भट्टारक थे किन्तु मुनि नाम से भी अपने आपको सम्बोधित करते थे। धन्य. कुमार चरित्र ग्रन्थ की पुष्पिका में इन्होंने अपने पापका मुनि सकलकीति नाम से परिचय दिया है।
.' ये स्वयं नाम अवस्था में रहते थे और इसलिये ये निग्रंथकार अथवा निग्रंथराज के नाम से भी अपने शिष्यों द्वारा संबोधित किये गये हैं। इन्होंने बागड़ प्रदेश में जहां भट्टारकों का कोई प्रभाव नहीं था । सम्बत् १४६२ में गलियाकोट में एक भट्टारक गादी की स्थापना की और अपने पापको सरस्वती-गच्छ एवं बलात्कारगरण की परम्परा का भट्टारक घोषित किया । ये उत्कृष्ट तपस्वी थे तथा अपने जीवन में इन्होंने कितने ही ब्रतों का पालन किया था।
____ सकलकीति ने जनता को जो कुछ चरित्र सम्बन्धी उपदेश दिया था, पहिले उसे अपने जीवन में उतारा । २२ वर्ष के एक छोटे समय में ३५ से अधिक ग्रन्थों को रचना, विविध ग्रामों एवं नगरों में बिहार, भारत के राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि प्रदेशों के तीर्थों की पद यात्रा एवं विविध व्रतों का पालन केवल सकलकीति जैसे महा विद्वान् एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले साधु से ही सम्पन्न हो सकते थे। इस प्रकार ये श्रद्धा, ज्ञान एवं चारित्र से विभूषित उत्कृष्ट एवं प्राकर्षक ध्यक्तित्व वाले साधु थे। मृत्यु---
एक पट्टाल के अनुसार भट्टारक सकलकीति ५६ वर्ष तक जीवित रहे। सम्वत् १४६६ में महसाना नगर में उनका स्वर्गवास हुप्रा । पं० परमानन्दजी शास्त्री ने भी प्रशस्ति संग्रह में इनको मृत्यु सम्बत् १४६६ में महसाना (गुजरात) में होना लिखा है । डा० ज्योतिप्रसाद जंन एवं डा० प्रेमसागर भी इसी सम्बत् को सही मानते हैं। लेकिन डा. ज्योतिप्रसाद इनका पूरा जीवन ८१ वर्ष स्वीकार करते हैं। जो अब लेखक को प्राप्त विभिन्न पट्टावलियों के अनुसार वह सही नहीं जान पड़ता।
१. तत्पट्ट पंकजविकासमास्वान् बभूव निर्मन्यवर: प्रतापी । महाकवित्वादिकला-प्रवीण: तपोनिधि: श्री सकलादिकोति ॥
हरिवंधा-पुराण। १. तत्पट्टधारी जनचित्तहारी पुराणमुख्योतम-शास्त्रकारी। भट्टारकः श्रीसकलादिकोतिः प्रसिद्धनाभाजनि पुग्यमूतिः ।।
उपदेशरत्नमाला-सकलभूषण