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तजि वयण सुणीसार, कुमर तुम्ह होइसिदए । निर्मल गंगानीर, चन्दन नन्दन तुम्ह तणुए ॥९॥ जलनिधि गहिर गम्भीर खोरोपम सोहामणुए ।
ते जिहि तरण प्रकाश जग उद्योतन जस किरणि ।।१०॥ बालक का नाम पूनसिंह अथवा पूर्णसिंह रखा गया । एक पट्टाव लिमें इनका नाम पदर्थ भी दिया हुआ है । द्वितीया के चन्द्रमा के समान वह बालक दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। उसका वर्ण राजहंस के समान शुभ्र था तथा शरीर बत्तीस लक्षणों से युक्त था। पांच वर्ष के होने पर पूर्णसिंह को पढ़ने बैठा दिया गया । बालक कुशाग्र बुद्धि का था । इसलिये शीघ्र ही उसने सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया। विद्यार्थी अवस्था में भी इनका अहंद्-भक्ति की ओर अधिक ध्यान रहता था। तथा वे क्षमा, सत्य, शौच एवं ब्रह्मचर्य आदि धर्मों को जीवन में उतारने का प्रयास करते रहते थे । गार्हस्थ्य जीवन के प्रति विरक्ति देखकर माता-पिता ने उनका १४ वर्ष को अवस्था में हो विवाह कर दिया, लेकिन विवाह बन्धन में बांधने के पश्चात् भी उनका मन संसार में नहीं लगा और वे उदासीन रहने लगे : पुत्र की गतिविधियां देखकर माता-पिता ने उन्हें यहुत समझाया लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। पुत्र एवं माता-पिता के मध्य बहुत दिनों तक वाद-विवाद चलता रहा । पूर्णसिंह के समझ में कुछ नहीं प्राता और वे बार बार साधु-जीवन धारण करने की उनसे स्वीकृति मांगते रहते।
अन्त में पुत्र की विजय हुई और पूर्णसिंह ने २६वें वर्ष में अपार सम्पत्ति को तिलांजलि देकर साधु-जीवन अपना लिया । वे आत्म-कल्याण के साथ साथ जगत्कल्याण की ओर चल पड़े । "भट्टारक सकलकोर्ति नु रास" के अनुसार उनकी इस समय केवल १८ वर्ष को प्रायु थी। उस समय भट्टारक पद्मनंदि का मुख्य केन्द्र नेमावां (उदयपुर) था और वे प्रागम ग्रन्थों के पारगामी विद्वान् माने जाते थे। इसलिये ये भी मेणवां चले गये और उनके शिष्य बनकर अध्ययन करने लगे । यह उनके साघु जीवन की प्रथम पद यात्रा थी । वहां ये आठ वर्ष रहे और प्राकृत एवं संस्कृत ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया। उनके मर्म को समझा और भविष्यमें सत्साहित्य का प्रचार प्रसार ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। ३४ वें. वर्ष में उन्होंने प्राचार्य पदवी ग्रहण की मोर नाम सकलकीर्ति रखा गया। विहार--
सकलकीति का वास्तविक साधु-जीवन सम्बत् १४७७ से प्रारम्भ होकर सम्बत् १४६६ तक रहा । इन २२ वर्षों में इन्होंने मुख्य रूप से राजस्थान के उदयपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ आदि राज्यों एवं गुजरात प्रान्त के राजस्थान के समीपस्थ प्रदेशों में खूब बिहार किया।
___ उस समय जन-साधारण के जीवन में धर्म के प्रति काफी शिथिलता आ गई थी। साधु-सन्तों के विहार का अभाव था । जन-साधारण को न तो स्वाध्याय के प्रति रुचि रही थी और न उन्हें सरल