Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 15
________________ [ १७ ] धिकार में १७३ श्लोक हैं जिनमें भवनवासी देवों के प्रवान्तर भेदों, इन्द्रों, निवास तथा प्रायु आदि का वर्णन है। त्रयोदनाधिकार में १२२ श्लोक हैं जिनमें व्यन्तर देवों के पाठ मेदों उनके इन्द्रों तथा निवास प्रादि का वर्णन है। चतुर्दशाधिकार में १३५ श्लोक हैं जिनमें ज्योतिर्लोकका वर्णन है । उसके अन्तर्गत सूर्य चन्द्रमा गृह नक्षत्र आदि की संख्या तथा उनकी चाल आदि का निरूपण है। पञ्चदशाधिकार में ४०३ श्लोक हैं जिनमें वैमानिक देवों के अन्तर्गत सौधर्मादि स्वर्ग उनके पटल, इन्द्र, देवाङ्गना तथा वैभव नादि का वर्णन है। अन्तिम षोडशाधिकार में ११६ श्लोक हैं जिनमें पल्य आदि प्रमाणों का वर्णन है तथा प्रन्थ के समारोप आदि की चर्चा है। इसप्रकार हम देखते हैं कि सम्पूर्ण ग्रन्थ उत्तमोत्तम सामग्री से परिपूर्ण है। नरक गति के दुःखों का वर्णन कर वहां से निकलने वाले सम्यग्दृष्टि जीवों के कैसे विचार होते हैं इसका भी मार्मिक वर्णन है। ग्रन्थ के रचयिता--- ___ इस ग्रन्थ के रचयिता प्राचार्य सकलकीति हैं । प्राचार्य सकलकोति भट्टारक होते हुए भी नग्न मुद्रा में रहते थे। इनके द्वारा रचित ग्रन्थावली को देखते हुए लगता है कि इन्होंने अपना पूरा बीवन सरस्वती की प्राराधना में ही व्यतीत किया है। चारों अनुयोगों के पाप ज्ञाता थे । संस्कृत भाषा पर आपका पूर्ण अधिकार था। इन्हीं के द्वारा रचित और हमारे द्वारा संपादित तथा अनुदित पार्श्वनाथचरित की प्रस्तावना में माननीय डा. कस्तूरचन्द्रजी कासलीवाल जयपुर ने इनका जो जीवन परिचय दिया है उसे हम उन्हीं के शब्दों में यहां साभार समुद्धृत करते हैंजीवन परिचय--- __ भट्टारझ सकलकीति का जन्म संवत् १४४३ (सन् १३०६) में हुआ था। इनके पिता का नाम करमसिंह एवं माता का नाम शोभा था। ये प्रणहिलपुर पट्टण के रहनेवाले थे। इनकी जाति हूमरण थो "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" कहावत के अनुसार गर्भ धारण करने के पश्चात् इनकी माता ने एक सुन्दर स्वप्न देखा और उसका फल पूछने पर करमसिंह ने इसप्रकार कहा १. हरषी सुणीय सुवाणि पालइ अन्य कमरि सुपर । चोऊद त्रिताल प्रमाणि पूरइ दिन पुत्र जनमीउ ।। ग्याति मांहि मुहतवंत हूंड हरषि मखाणिहये । करमसिंह वितपन उपयवंत इम जारणीए ॥३॥ वामित रस भरधागि, भूमि सरीस्य सुन्दरीय । सील स्पंगारित मगि पेस्तु प्रत्यक्ष पुरंदरीय ॥४॥ -सकसकीति रास

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