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[ १६ भाषा में साहित्य ही उपलब्ध होता था। इसलिये सर्वप्रथम सकलकीति ने उन प्रदेशों में विद्यार किया पौर सारे समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। इसी उद्देश्य से उन्होंने कितने ही यात्रा संघों का नेतृत्व किया। इसके पश्चात् उन्होंने अन्य तीर्थों की वन्दना को जिससे देश में धार्मिक चेतना फिर से जागृत होने लगी। प्रतिष्ठानों का प्रायोजन--
तीर्थ-यात्रानों के पश्चात् सकलकोति ने नवीन मन्दिरों का निर्माण एवं प्रतिष्ठाएं करवाने का कार्य हाथ में लिया। उन्होंने अपने जीवन में १४ बिम्ब-प्रतिष्ठानों का संचालन किया । इस कार्य में योग देने वालों में संघपति नरपाल एवं उनकी पली बहुरानी का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। गलियाकोट में संघपति मूलराज ने इन्हीं के उपदेश से "चतुर्विशति-जिनबिम्ब" की स्थापना की थी। नागदा जाति के श्रावक संघपति ठाकुरसिंह ने भी कितनी ही बिम्ब प्रतिष्ठानों में योग दिया । भट्टारक सकलकीति द्वारा सम्बत् १४६०, १४९२, १४६७ आदि सम्वतों में प्रतिष्ठापित मूर्तियां उदयपुर, हूंगरपुर एवं सागवाड़ा आदि स्थानों के जैन मन्दिरों में मिलती है । प्रतिष्ठा महोत्सवों के इन प्रायोपनों से तत्कालीन समाज में जो जनजागृति उत्पन्न हुई थी, उसने देश में जैन-धर्म एवं संस्कृति के प्रचार प्रसार में अपना पूरा योग दिया।
व्यक्तित्व एवं पाण्डित्य
भट्टारक सकलकीति असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। इन्होंने जिन जिन परम्परागों की नींव रखी । उनका बादमें खूब विकास हुा । वे गम्भीर-अध्ययन-युक्त संत थे। प्राकृत एवं संस्कृत भाषामों पर इनका पूर्ण अधिकार था । ब्रह्म जिनदास एवं भ० मुवनकीति जैसे विद्वानों का इनका शिष्य होना ही इनके प्रवल पांडित्य का सूचक है। इनकी वाणी में जादू था इसलिये वहां भी इनका विहार हो जाता था, वहीं इनके सैकड़ों भक्त बन जाते थे। वे स्वयं तो योग्यतम विद्वान थे ही, किन्तु इन्होंने अपने शिष्यों को भी अपने ही समान विद्वान् बनाया । ब्रह्म जिनदास ने अपने ग्रन्थों में भट्टारक सकलकोति को महाकवि, निग्रन्थराज शुद्ध चरित्रधारी एवं तपोनिधि आदि उपाधियों से सम्बोषित किया है।'
भट्टारक सकलभूषण ने अपनी उपदेश-रत्नमाल। को प्रशस्ति में कहा है कि सकलकोति जन
१. ततोऽभक्तस्य जमत्प्रसिद्धः, पट्टे मनोज्ञे सकलादिकीतिः । महाकविः शुद्धचरित्रधारी, निम्रन्यराजो जगति प्रतापी ।।
जम्बूस्वामी चरित्र