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श्राद्धविधि प्रकरणम्
21 से 'मैं प्रथम, मैं प्रथम' यह कल्पनाकर अपनी-अपनी दृष्टि व मन यही सर्वोत्कृष्ट मूल्य कन्याओं को दिया अर्थात् सबने अपनी दृष्टि व मन कन्याओं की ओर लगाया तथा नाना प्रकार की चेष्टाओं द्वारा कन्याओं के प्रति अपने-अपने मन की अभिलाषा प्रकट करने लगे। तदुपरान्त सखी इस प्रकार राजाओं की प्रशंसा करने लगी
"सर्व राजाओं में राजराजेश्वर के समान यह राजगृह नगर का राजा है। शत्रुओं के सुख का नाश करने में कुशल यह कौशल देश का राजा है। स्वयंवर की शोभा से देदीप्यमान यह गुर्जराधिपति का पुत्र है। जयंत नामक इन्द्रपुत्र से भी विशेष ऋद्धि से सुशोभित यह सिन्धुदेशाधिपतिका पुत्र है। शौर्यलक्ष्मी तथा औदार्यलक्ष्मी के क्रीड़ास्थल तुल्य यह अंगदेशका राजा है। अत्यन्त रमणीय तथा सौम्य यह कलिंगदेश का राजा है। कामदेव के मद को नष्ट करनेवाला रूपशाली यह बंगदेश का राजा है। अपार लक्ष्मी का स्वामी यह मालवदेशाधिपति है। यह प्रजापालक तथा अत्यन्त दयालु नेपालदेश का राजा है। प्रसिद्ध सद्गुणों से जो बहुत आदरणीय है ऐसा यह कुरुदेश का राजा है। शत्रुओं का समूल नष्ट करनेवाला यह निषधदेश का राजा है। कीर्तिरूपचंदनवृक्षों की सुगन्धी से साक्षात् मलयपर्वत के समान सुशोभित यह मलयदेश का राजा है।'
इस प्रकार जब सखी समस्त राजाओं की प्रशंसा कर चुकी तब जैसे इन्दुमती ने अजराजा को वरा वैसे ही हंसी और सारसी दोनों ने जितारि राजा के गले में वरमाला डाल दी। उस समय अन्य राजाओं के मन में इच्छा, उत्सुकता, संशय, अहंकार, खेद, लज्जा, पश्चात्ताप तथा अदृष्टि आदि मनोविकार प्रकट हुए। कितनेक समझदार राजाओं को आनन्द भी हुआ। किसी किसी राजा को स्वयंवर पर, किसीको अपने आगमन पर किसीको अपने भाग्य पर तथा किसी किसी को अपने मनुष्य भव पर अरुचि उत्पन्न
तदनन्तर राजा विजयदेव ने शुभ दिन देखकर बड़े समारोह के साथ जितारिराजा के साथ अपनी दोनों कन्याओं का विवाह किया, तथा बहुतसा द्रव्य, वाहन, सेना आदि देकर वर का यथोचित सत्कार किया।
दूसरे बड़े-बड़े राजा भी इस स्वयंवर में निराश हो गये इसका यही कारण है कि पुण्य के बिना मनुष्यों को मनवांछित वस्तु कभी प्राप्त नहीं होती। यद्यपि जितारिराजा से ईर्ष्या रखनेवाले उस समय सेंकडों राजा थे पर बड़े ही आश्चर्य की बात है कि कोई भी कुछ उपद्रव न कर सका, अथवा यह मानना चाहिए कि जो स्वयं जितारि-शत्रु को जीतनेवाला है उसका पराभव कौन कर सकता है?
कुछ समय के पश्चात् ति प्रीति के समान दो स्त्रियों से कामदेव को लज्जित करता तथा दूसरे राजाओं के गर्वको खंडन करता हुआ राजा जितारि अपने देश की ओर विदा हुआ। वहां पहुंचकर हंसी तथा सारसी दोनों का पट्टाभिषेक किया। राजा अपने दोनों नेत्रों की तरह दोनों पर समान प्रीति रखता था, परन्तु दोनों के मन में सपत्नीभाव (सौतपन) से स्वाभाविक भ्रम पैदा हो गया। इससे दोनों का जो स्वाभाविक प्रेम था वह