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ध्यान करके हम अपने चरित्र को सुधारते हैं, उनकी हम मूर्तियां स्थापित कर लेते हैं और उनके प्रति अपनी श्रद्धा, भक्ति-भाव व्यक्त करने के लिये उनकी स्तुति करते एवं नाना द्रव्यों से उनकी पूजा अर्चना करने लगते हैं । और जब व्यक्ति ही नहीं, किन्तु समाज का समाज इन्हीं पूजा अर्चा
आदि क्रियाओं को धर्म का सर्वस्व समझने लगता है और अध्यात्म भाव को भूलने लगता है. यही नहीं. किन्तु इन्हीं क्रिया प्रों द्वारा वह अग्ने इहलौकिक अभीष्टों को सिद्ध करने का प्रयत्न करने लगता है, तब धर्म में विकार उत्पन्न हो जाता है और मनीषी साधुओं को इसकी चिन्ता हो उठती है कि सच्चे धर्म की यह विकृति किस प्रकार दूर की जाय ।
तारण स्वामी इसी प्रकार के महान साधु हुए हैं। उन्होंने देखा कि जिस अध्यात्म को विशुद्ध धारा को तीर्थंकरों, उनके गणधरों एवं कुन्दकुन्दादि आचायों में प्रवाहिन किया था, वह मूर्तिपूजा सम्बन्धी क्रिया-काण्ड द्वारा कुंठित और अवरुद्ध होने लगा है, तब उन्होंने अपने उपदेश द्वारा, अपनी वाणी के बल से, लोगों का ध्यान पुन: अध्यात्म की ओर आकर्षित किया । उनकी जितनी रचनाएं उपलब्ध हैं उन सब में वही विशुद्ध जैन अध्यात्म की धारा प्रवाहित है। उसमें कोई खंडन-मंडन नहीं, रागद्वेष नहीं, किसी की अपनी मान्यता की आघान पहुँचाने की भावना नहीं । उसमें तो सीधे और सरल रीति से जैन अध्यात्म की नाना भावनामों का स्वरूप बतलाया गया है। न ननकी वाणी में किसी सम्प्रदाय -विशेष का संगठन करने का भाव है, और न किसी दर्शनशास्त्र को उत्पन्न करने का प्रयत्न । उस में यदि कुछ है तो केवल वही अध्यात्म की पुकार । जड़ प्रवृत्तियों में मत उलझो, सच्चो आत्मशुद्धि की ओर ध्यान दो।
स्वामी जी का यह उपदेश उनके नाम से प्रचलित अनेक ग्रन्थों में पाया जाता है । जिस काल में और जिस रूप में उन्होंने यह उपदेश दिया होगा वह अवश्य ही लोगों के हृदयंगम होता होगा। तब ही तो उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ी, जो आज तक भी कई सहस्र पाई जाती है। तथापि उपलब्ध ग्रन्थों की भाषा व प्रतिपादन शैली ऐसी पाई जाती है कि वह बिना गुरु उपदेश के आजकल के पाठकों को सुज्ञेय नहीं है। इस कठिनाई को दूर करने का प्रथम श्रेय स्वर्गीय ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसाद जी को है, उन्होंने अनेक ग्रन्थों की सुबोध टीकायें लिखकर स्वामी जी के उपदेशों का मर्म खोलने का प्रयत्न किया था। अब श्री अमृतलाल जी चंचल ने अपनी काव्यकुशलता और सरलार्थ रचना द्वारा इन ग्रन्थों को और भी सुगम, आकर्षक और उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया है, जो प्रशंसनीय है।
प्रस्तुत रचना के माधारभूत प्रन्थ तारनस्वामी द्वारा विरचित चार प्रन्थ हैं। श्रावकाचार, पंडितपूजा, मालारोहण और कमलबत्तीसी। इन्हीं का अनुवादक ने नया नाम 'सम्यक् भाचार :