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प्रस्तावना [ डा. हीरालाल जैन, डायरेक्टर-वैशाली प्राकृत जैन विद्यापीठ, मुजफ्फरपुर ]
कुछ वर्ष पूर्व तारण म्वामी की तीम रचनाएं अमृतलाल जो चंचल के अनुवाद सहित 'तारण-त्रिवेणी' के नाम से प्रकाशित हुई थीं। उस प्रन्थ को प्रस्तावना में मैंने संत परम्परा में सारण स्वामी के स्थान व उनकी प्रन्थों के विषय व भाषा सम्बन्धी विशेषतामों पर अपने विचार प्रकट किये थे। मुझे चंचल जी से यह जानकर बड़ी प्रसन्नता है कि उक्त प्रकाशन बहुत लोकप्रिय हुमा और उसके द्वारा जनता की रुचि स्वामी जी की रचनाओं की ओर अधिकाधिक प्राकष्ट होने लगी । इसी लोक-रुचि और भावश्यकता की पूर्ति के लिये अब चंचल जी ने तारण स्वामी की अन्य कुछ रचनाओं का अनुवाद प्रस्तुत किया है जो स्वागत करने योग्य है।
___ तारण स्वामो की रचनायें धार्मिक भावों से ओत प्रोत हैं और उनमें अध्यात्म चिन्तन को धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित हो रही है। स्वामी जी की यह विचारधारा एक ओर तो भारतीय सन्त परम्परा से मेल खाती है और दूसरी ओर अपनो कुछ विशेषता भी रखती है। आप वोदक परम्परा की उपनिषद भादि रचनाओं से लेकर कवीर की वाणी तक के सन्त साहित्य को देखिये, बौद्धों के सिद्धां और योगियो के दोहा काषां और चा-पदों का अवलोकन काजिये एवं जैन साहित्य में कुन्दकुन्द आचाय से लेकर योगीन्द्र व रामसिंह भादि मुनियों की रचनाओं का स्वाध्याय कीजिय और उनके साथ तारणस्वामी को वाणो पर ध्यान दीजिये ! आपका वही भारतीय अध्यात्म चिन्तन का प्रवाह दिखाई देगा जिसका केन्द्रीय विषय है संभार की निस्सारता, भौतिक पदार्थों की क्षणभंगुरता, इन्द्रियों के भोग-विलामों और सुग्वभासों की तुच्छना तथा प्रात्म और परमात्म अनुभवों को सारभूतता । भारत के ऋषियों मुनियों ने जब से इम नश्वर देह से भिन्न शाश्वत आत्मा को सत्ता को पहिचान पाया है तब से उन्हें व उनके अनुयायिओं को सांसारिक वासनाओं से विरक्ति होगई है। यही नहीं, किन्तु उनका ममम्त विचार-सरणि और चया उस दिशा में प्रवाहित हुई है जहाँ उस आत्मा का शुद्ध, बुद्ध और नित्य स्वरूप प्रकाश में आ सके । इस भावना ने संसार को भौतिक नीला के पाच भारतीयों के हृदय में अध्यात्म की एक अदम्य लालसा उत्पन्न कर दी है, जिससे यहां के भावालवृद्ध सभा मनुष्यों को इस लोक के साथ-साथ परलोक सुधारने को भी प्रेरणा मिलता रहती है।
अध्यात्म की इस सामान्य भारतीय चिन्तन धारा में वंदिक और जैन परम्परा की अपनी अपनी भी कुछ विशेषतायें हैं। वैदिक धारा में इसका चरम विकास वेदान्त दर्शन में पाया जाता है जिसके अनुसार ब्रह्मसत्यं जगान्मध्या-जावा ब्रह्मेर नापरः। अथात् समस्त दृश्यमान चराचर