________________ 50 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदप्यभाषि-'तथानुमानबुद्धिरपि गृहीताविनाभावानन्यापेक्षे'त्यादि, [ पृ० १७-पं० 2 ] तदप्यचारु; अविनाभावनिश्चयस्यैव गुणत्वात् , तदनिश्चयस्य विपरीतनिश्चयस्य च दोषत्वात् / तदेवमुत्पत्तौ प्रामाण्यं गुणापेक्षत्वात् परतः इति स्थितम् / [ (2) प्रामाण्यं स्वकार्येऽपि न स्वतः-उत्तरपक्षः ] यदप्युक्तम्-'नापि स्वकार्ये प्रवर्त्तमानं प्रमाणं निमित्तान्तरापेक्षम्' इति, तदप्यसंगतम् / यतो यदि कार्योत्पादनसामग्रोव्यतिरिक्तनिमित्तानपेक्षं प्रमाणमित्युच्यते तदा सिद्धसाधनम् / अथ 'सामपरये कदेशलक्षणं प्रमाणं निमित्तान्तरानपेक्षम्'-तदप्यचारु; एकस्य जनकत्वाऽसम्भवात् / 'न ह्य के किंचिज्जनकं, सामग्री वै जनिका' इति न्यायस्यान्यत्र व्यवस्थापितत्वात् / असंस्कार्यतया पुंभिः, सर्वथा स्यान्निरर्थता / संस्कारोपगमे व्यक्तं गजस्नानमिदं भवेत् / / .. अर्थ:-वेदवाक्य यदि पुरुष द्वारा संस्कारयोग्य न हो अर्थात् संकेत का अविषय हो तब वे निरर्थक हो जायेंगे / अर्थात् किस वेदपद का क्या अर्थ है यह कोई पुरुष नहीं बतायेगा तो वेदवाक्य अर्थ हीन हो जायेंगे / यदि वेदवाक्यों में पुरुषों का संस्कार यानी संकेत-सूचन माना जाय तो वेदवाक्य अपौरुषेय मानना गजस्नान समान व्यर्थ है। _ 'अनुमानबुद्धि भी व्याप्तिज्ञान सापेक्ष एवं अन्य निरपेक्ष लिंग से उत्पन्न होती है'....इत्यादि जो मीमांसक ने कहा है वह भी सून्दर नहीं, क्योंकि यहां व्याप्ति का निश्चय ही गुण है, व्याप्तिनिश्चय का अभाव और विपरीतनिश्चय यानी व्याप्ति आदि का भ्रान्तनिश्चय दोष है / इस प्रकार प्रामाण्य उत्पत्ति में गुणों की अपेक्षा करता है इसलिये पर की अपेक्षा से उत्पन्न होता है-यह सिद्ध हो गया। (१-उत्पत्ति में प्रामाण्य के स्वतोभाव का निषेध पक्ष समाप्त ) [(2) स्वकार्य में प्रामाण्य के स्वतोभाव का निराकरण-उत्तर पच ] यह जो कहा गया है-'प्रमाण जब अपने कार्य में प्रवृत्ति करता है तब किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं करता'- वह भी युक्त नहीं, क्योंकि यहां यदि आपका तात्पर्य यह हो कि 'प्रमाण जब कार्य को उत्पन्न करता है तब कार्य को उत्पन्न करने में जो कुछ सामग्री अपेक्षित होती है, प्रमाण उसीकी अपेक्षा करता है अन्य की नहीं करता है। अर्थात् कार्योत्पादक सामग्री से भिन्न किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं करता' तो इसमें सिद्धसाधन दोष है। परतः प्रमाणकार्यवादी भी यही मानता है। उसके मतानुसार भी प्रमाण कार्योत्पादकसामग्री की ही अपेक्षा करता है, तदन्य किसी की नहीं / ___यदि आप कहें-'प्रमाण के अर्थतथात्वपरिच्छेदरूप कार्य की उत्पत्ति में जिस सामग्री की अपेक्षा है, प्रमाण भी उस सामग्री का एक अंश ही है। यह अंशरूप प्रमाण किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं करता है।'-तो यह कथन भी युक्त नहीं, क्योंकि 'कोई एक अर्थ किसी कार्य का कारण नहीं हो सकता।' इस तथ्य का समर्थन 'न ह्य कं किञ्चिज्जनक, सामग्री वै जनिका' इस न्याय से अन्यत्र किया गया है / उस न्याय का भाव यह है कि एक ही अर्थ कार्य का उत्पादक नहीं होता है किन्तु सामग्री कार्य को उत्पन्न करती है। तब कैसे कहा जाय कि प्रमाण अन्य निमित्त की अपेक्षा नहीं करता है ?