________________ प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा यदपि 'यदाऽविद्यानिवृत्तिः तदा स्वरूपप्रतिपत्तिः सैव मोक्षः' इति तदपि युक्तमेव, अष्टविधपारमाथिककर्मप्रवाहरूपानाद्यविद्यात्यन्तिकनिवृत्तेः स्वरूपप्रतिपत्तिलक्षणमोक्षावाप्तेरभीष्टत्वात् / अत एव 'आनन्दं ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षेऽभिव्यज्यते' इत्येतदपि नास्मत्पक्षक्षतिमुद्वहति, अभिव्यक्तेः स्वसंवि दस्वरूपतया तदवस्थायामात्मन उत्पत्तरभ्युपगमात / यच्च 'यथात्मनो महत्त्वं निजो गुणः' इत्यादि, तदसारम् , नित्यसुख-महत्त्वादेरात्माऽव्यतिरिक्तत्वेन तद्धर्मत्वेन वा प्रमाणबाधितत्वादनभ्युपगमाहत्वात् / अत एव 'संसारावस्थायामपि नित्यसुखस्य तत्संवेदनस्य च सद्भावात् संसार-मुक्त्यवस्थयोरविशेषः' इत्यादि यदूषणमत्र पक्षे उपन्यस्तं तदनभ्युपगमादेव निरस्तम्। ___यच्चानित्यत्वपक्षेऽपि तस्यामवस्थायां सुखोपपत्तावपेक्षाकारणं वक्तव्यम् , न ह्यपेक्षाकारणशून्यः आत्ममनःसंयोगः कारणत्वेनाभ्युपेयते' इत्यादि, तदप्यसंगतम् , ज्ञान-सुखादेश्चैतन्योपादेयत्वेन तद्धर्मानुवृत्तितः प्राक् प्रतिपादितत्वात , सेन्द्रियशरीरादेस्तु तदुत्पत्तावपेक्षाकारणत्वेनाभ्युपगम्यमानस्याऽव्यापकत्वात् / तथाहि-सेन्द्रियशरीराद्यपेक्षाकारणव्यापाररहितं विज्ञानमुपलभ्यत एव समरतज्ञेयमें बुद्धिआदि विशेषगुणों का तादात्म्य सिद्ध होने से उसका अभाव असिद्ध है / तात्पर्य, आत्मभिन्न बुद्धिआदि गुणों से शून्य आत्मस्वरूप को मुक्ति कहना असंगत है / - [चिदानंदरूपता भी एकान्तनित्य नहीं हैं ] नैयायिक के सामने पूर्वपक्षी का जो यह कहना था कि-मुक्तिदशा में चैतन्य का भी यदि उच्छेद मानेंगे तो बुद्धिमान लोग मुक्तिप्राप्ति के लिये प्रयत्न ही नहीं करेंगे, अत: आनन्दमयात्मस्वरूप को ही मोक्ष मानना चाहिये-यह पूर्वपक्षी का कथन नितान्त सत्य है। किन्तु उसने जो यह कहा था किआत्मा की चित्स्वभावता जैसे नित्य है वैसे उस की आनन्दस्वभावता भी नित्य है-यह बात गलत है क्योंकि हम आत्मा की चित्स्वभावता को भी एकान्तनित्य नहीं मानते है फिर आनन्दस्वभावता को नित्य कैसे माने ? हाँ, चिद्रूपता और आनन्दरूपता को कथंचिद् आत्मस्वरूप हम मानते हैं / यद्यपि वेद में 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इस कथन से चिद्रूपता और आनन्दरूपता का आत्मा से अभेद कहा गया है, किन्तु वह हमारी मान्यता में बाधक नहीं है क्योंकि सकलज्ञेयव्यापि स्वसंविदित ज्ञान और विषयनिरपेक्ष स्वसंविदित आनन्द मुक्तिदशा में सकलकर्मरहितब्रह्मात्मस्वरूप से कथंचिद् अभिन्न होने का हमें मान्य ही है। [ कर्मसन्तानरूप अविद्या के ध्वंस से मोक्ष ] यह जो कहा है-अविद्या की निवृत्ति जब होती है तब स्वरूपप्राप्ति होती है और यही मोक्ष है-वह भी युक्तिसंगत है, क्योंकि अष्ट प्रकार का पारमाथिक कर्मसन्तान ही अविद्या है और उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति होने पर स्वरूपप्राप्तिरूप मोक्ष का लाभ होता है यह हम भी मानते हैं / इसीलिये यह जो वेदवाक्य है कि 'आनन्द यह ब्रह्म का स्वरूप है और मोक्ष में उसको अभिव्यक्ति होती है' यह वाक्य भी हमारे पक्ष में क्षति-आपादक नहीं है, क्योंकि उक्त स्वरूप की अभिव्यक्ति यानी स्वसंविदितानन्दस्वरूप से मुक्तावस्था में आत्मा की कथंचिद् उत्पत्ति को हम मानते ही हैं / तथा, यह जो कहा है कि "महत्त्व आत्मा से अव्यतिरिक्त, आत्मा का अपना गुण है फिर भी संसारदशा में उसका जैसे ग्रहण नहीं होता वैसे नित्य सुख का भी नहीं होता"-वह भी अयुक्त है क्योंकि आत्मा से एकान्ततः अव्यतिरिक्त अथवा आत्मधर्मरूप में नित्यसुख अथवा महत्त्व को मानने में प्रमाणबाध जागरुक है अतः वह