Book Title: Sammati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Abhaydevsuri
Publisher: Motisha Lalbaug Jain Trust

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Page 673
________________ 640 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न चायमेकत्वविषयः प्रत्ययः प्रतिसंख्यानेन निवर्त्तयितुमशक्यत्वान्मानसो विकल्पः / तथाहिअनुमानबलात् क्षणिकत्वं विकल्पयतोऽपि नैकत्वप्रत्ययो निवर्त्तते, शक्यन्ते तु प्रतिसंख्यानेन निवारयितु कल्पना: न पुनः प्रत्यक्षबुद्धयः / तस्माद् यथा अश्वं विकल्पयतोऽपि गोदर्शनान्न गोप्रत्ययो विकल्पस्तथा क्षरिणकत्वं विकल्पयतोऽप्येकत्वदर्शनान्नैकत्वप्रत्ययो विकल्पः / नाप्ययं भ्रान्तः, प्रत्यक्षस्याऽशेषस्यापि भ्रान्तत्वप्रसंगात् / बाह्याभ्यन्तरेषु भावेष्वेकत्वग्राहकत्वेनैवाऽशेषप्रत्यक्षेणानु (?क्षाणामुत्पत्तिप्रतीतेः, तथा च प्रत्यक्षस्याऽभ्रान्तत्वविशेषणमसम्भव्येव स्यात् / तस्मादेकत्वग्राहिणः स्वसंवेदनप्रत्यक्षस्याऽभ्रान्तस्य कथंचिदेकत्वमन्तरेणानुपपत्तेर्नानुगतरूपाभावः। निवृत्ति होने पर भी जीव यदि अनुवर्तमान रहेगा तो ज्ञान और आत्मा का भेद प्रसक्त होगा। यदि विरुद्ध धर्माध्यास स्पष्ट होने पर भी आप उनमें एकान्त भेद नहीं मानगे तो भेद का अन्य कोई लक्षण न होने से भेद को कहीं भी अवकाश ही नहीं मिलेगा, फलतः सारे जगत् के पदार्थों में अभेद ही अभेद प्रसक्त होगा / अतः उक्त अनुमान से जब व्यावृत्त और अनुवृत्त पदार्थ का ( यानी ज्ञान और आत्मा का) सर्वथा भेद सिद्ध है तो फिर सान्वय निरास्रवचित्तसन्तान को मुक्ति नहीं मान सकते / कारण, चित्तसन्तान से सर्वथाभिन्न आत्मा का क्षणों में अन्वय होना शक्य नहीं है / तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि आप सन्तान के पूर्वापरक्षणों में अनुविद्ध एक आत्मा का स्वीकार नहीं करगे तो हमें जो यह ऐक्यविषयक प्रत्यक्ष स्वसंविदित प्रतीति होती है-"मैं एक हूं"- यह नहीं हो सकेगी। यदि कहें कि-आत्मा तो असत् है फिर भी जो उसमें एकत्व को प्रतीति होती है वह तो आरोपित है, वास्तविक नहीं-तो यह अयुक्त है, क्योंकि आपके ( बौद्ध ) मत में तो क्षणिकत्व का आत्मा में अनुमान प्रसिद्ध है, उससे सन्तान में अनेकत्व का निश्चय होते समय ही आरोपित एकत्वविषयक विकल्प की तो निवृत्ति हो जायेगी, फिर भी एकत्व विषयक विकल्प होता है वह कैसे होगा जब कि निश्चयात्मकचित्त और आरोपितविषयकचित्त इन दोनों में प्रगट विरोध है। यदि इन में विरोध नहीं मानेंगे तो सविकल्पप्रत्यक्षवादी के मत में एक बार सभी प्रकार से एक अर्थ प्रत्यक्ष से निश्चित हो जाने के बाद भी समारोप निवृत्त न होने के कारण उसकी निवृत्ति के लिये अनुमानादि अन्य प्रमाण की प्रवृत्ति मानी जाती है-उसको आप निरर्थक नहीं मान सकेंगे किन्तु सार्थक मानना पड़ेगा। यदि कहें कि-"अनुमान से क्षणिकत्व का निश्चय होते समय एकत्व का विकल्प निवृत्त हो जाता है"तब तो उसी समय मुक्तिलाभ होने की आपत्ति होगी, क्योंकि उस वक्त न तो सहज सत्त्वदर्शन है न तो अविद्यादिसंस्कारजनित सत्त्वदर्शन है, सत्त्वदर्शन न होने से तन्मूलक रागादि उसी वक्त निवत्त हो जायेंगे तो मुक्ति क्यों नहीं हो जायेगी ? ! [एकत्वविषयक प्रत्यक्ष मिथ्या नहीं है ] एकत्वविषयक प्रतीति वास्तविक नहीं किन्तु मानसिक विकल्परूप है ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि प्रतिसंख्यान (=विरोधी विकल्प) से उसकी निवृत्ति हो ऐसी शक्यता नहीं है / जैसे सोचियेअनुमान के बल से क्षणिकत्व का विकल्प होते समय भी एकत्वप्रतीति का निवर्तन नहीं होता है, क्योंकि प्रतिसंख्यान से भी कल्पनाओं का ही निवर्त्तन शक्य है प्रत्यक्षात्मक बुद्धियों का नहीं। इसलिये अश्व के विकल्पकाल में गो का दर्शन ही होता है, तो गोविषयक विकल्पज्ञान उत्पन्न नहीं होता तरह क्षणिकत्व के विकल्पकाल में भी एकत्व का दर्शन ही होता है इसलिये एकत्वविषयक विकल्प की उत्पत्ति को अवकाश नहीं रहता। [ तात्पर्य यह है कि यदि एकत्व की प्रतीति विकल्पात्मक

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