________________ 650 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदपि 'स्वदेशादिषु सत्त्वं परदेशादिष्वसत्त्वं वस्तुनोऽभ्युपगम्यत एव इतरेतराभावस्याभ्युपगमात्' इत्यादि तदप्ययुक्तम् , इतरेतराभावस्य घटवस्त्वभेदे घटविनाशे पटोत्पत्तिप्रसंगात् पटाद्यभावस्य विनष्टत्वात / अथ घटाद भिन्नोऽभावस्तदा घटादीनां परस्परं भेदो न स्यात् / यदा हि घटाभावरूप: पटो न भवति तदा पटो घट एव स्यात् , यथा वा घटस्य घटाभावाद भिन्नत्वाद घटरूपता तथा पटादेरपि स्यात् घटाभावादिन्नत्वादेव / नाप्येषां परस्पराभिन्नानामभावेन भेदः शक्यते कर्तुम् , तस्य भिन्नाभिन्नभेदकरणेऽकिचित्करत्वात् / न चाभिन्नानामन्योन्याभावः संभवति / नापि परस्परभिन्नानामभावेन भेदः क्रियते, स्वहेतुभ्य एव भिन्नानाममुत्पत्तेः / नाऽपि भेदव्यवहारः क्रियते, यतो भावानामात्मीयरूपेणोत्पत्तिरेव स्वतो भेदः, स च प्रत्यक्ष प्रतिभासनादेव भेदव्यवहारहेतुः, तेन 'वस्त्वसंकरसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यसमाश्रिता' [ ] इति निरस्तम् / किंच, भावाभावयोर्भेदो नाऽभावनिबन्धन:, अनवस्थाप्रसंगात / अथ स्वरूपेण भेदस्तदा भावानामपि स स्यादिति किमपरेणाऽभावेन भिन्नेन विकल्पितेन ? तन्नकान्तभिन्नोऽभिन्नो वेतरेतराभावः संभवति / हम एकान्तवाद का प्रतिषेध करके यह दिखाने वाले हैं कि वस्तुमात्र नित्यानित्यादिअनेकान्तरूप ही है-इससे यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि अनेकान्तज्ञान मिथ्याज्ञानरूप नहीं है। [ इतरेतराभाव की अनुपपत्ति ] यह जो कहा था-[ 614-5 ] इतरेतराभाव ( एक वस्तु में अन्यवस्तु के अभाव ) को हम मानते ही हैं अत: 'वस्तु का स्वदेश-कालादि में सत्त्व और पर देश कालादि में असत्त्व' की बात को हम मानते ही हैं-यह बात भी गलत है। कारण, आपका माना हुआ इतरेतराभाव यूक्तिशून्य है। जैसे देखिये, घटवस्तु से इतरेतराभाव को यदि अभिन्न मानेंगे तो घट का विनाश होने पर वहाँ पटअन्योन्याभाव भी नष्ट हो जाने से पट की उत्पत्ति की आपत्ति आयेगी। यदि वह अभाव घट से भिन्न माना जाय तो घट-पटादि का परस्पर भेद मिट जायेगा / वह इसलिये कि पट अगर घटाभावरूप नही है तो इसका मतलब यही होगा कि पट घटरूप ही है / अथवा घटाभाव से भिन्न होने के कारण जैसे घट में घटरूपता मानी जाती है वैसे पटादि में भी घटरूपता माननी पड़ेगी क्योंकि पटादि भी घटाभाव से भिन्न ही है / तदुपरांत यहाँ दो विकल्प हैं-a अभाव द्वारा परस्परअभिन्न पदार्थ में भेद किया जाता है या b परस्पर भिन्न पदार्थों का ? a प्रथम विकल्प शक्य नहीं है क्योंकि अभाव द्वारा जो भेद किया जायेगा वह यदि उन वस्तुओं से भिन्न होगा तो फिजूल हो जायेगा, और यदि अभिन्न होगा तो कोई काम का न रहेगा। तथा, जो पहले से ही परस्पर अभिन्न हैं उनमें अभावों के द्वारा भेदापादन शक्य भी नहीं है। b अभाव के द्वारा परस्पर भिन्न पदार्थों का भेद किया जाय-यह विकल्प भी असंगत है क्योंकि वे अपने हेतुओं से ही भिन्नरूप में उत्पन्न हुए हैं। यदि कहें कि-भेद स्वतः होने पर भी उसका व्यवहार करने के लिये वह अभाव उपयोगी बनेगा-तो यह भी संगत नहीं है, क्योंकि पदार्थों की अपने स्वरूप से उत्पत्ति-यही स्वतः भेद पदार्थ है और प्रत्यक्ष प्रतीति में उसका अनुभव भी प्रसिद्ध है इसलिये स्वतः अपना व्यवहार भी करायेगा, तो अभाव की जरूर क्या है ? इससे यह भी जो किसी ने कहा है कि-अभाव की प्रामाणिकता के आधार पर वस्तु में असांकर्य (अन्योन्य असंकीर्णरूपता-भिन्नरूपता ) सिद्ध होता है-वह निरस्त हो जाता है / यह भी ज्ञातव्य है कि भाव और अभाव का भेद अभाव द्वारा नहीं हो सकता है क्योंकि जिस अभाव के द्वारा यह भेद